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लड़खड़ाते गीतों में ताजा लफ्ज...

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दीपक असीम

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फिल्म "एजेंट विनोद" में एक मुजरा है। उसके शुरू में एक शेर उसी तरह दिया गया है जिस तरह "बंटी और बबली" के आइटम सांग "कजरारे" में दिया गया था। इस शेर में दोष यह है कि काफिया नहीं बन पाया है। पहली लाइन उत्तर जा रही है और दूसरी लाइन दक्षिण। इसी गीत में दुकानदार शब्द को दबाकर इस्तेमाल किया गया है और "दुकनदार" कहा गया है।

शुरुआत के शेर में गुलजार को कॉपी करने की नाकाम और भद्दी कोशिश की गई है। फिर बाद में हुआ यह है कि यह गीत न तो मुजरा रह गया है और न ही आइटम सांग। ये दोनों के बीच की कोई चीज जैसा लगता है।

इन दिनों बहुत सारे नए गीतकार मैदान में आ गए हैं। ये गीतकार उस तरह शब्दों और मीटर की समझ नहीं रखते, जिस तरह पहले के गीतकार रखा करते थे। नए गीतकारों के आने से फायदा यह हुआ है कि हमें कुछ नए शब्द भी गानों में सुनने को मिलते हैं, खासकर हिन्दी के शब्द।

पुराने गीतकारों पर उर्दू गजल की भाषा हावी थी। इसीलिए तमाम फिल्मी गीत उर्दू गजल का ही फैलाव मालूम होते हैं। फिर बाद में प्रतिभाहीन गीतकारों ने इन शब्दों का फूहड़ प्रयोग किया और ये तमाम शब्द अपना अर्थ और ताजगी खो बैठे।

फिर कुछ ऐसे संगीतकार आए जिनके लिए गीतकार की अलग से आवश्यकता ही नहीं थी। इनमें रवीन्द्र जैन प्रमुख हैं। मगर रवीन्द्र जैन बहुमुखी प्रतिभा रखते हैं। उनके कान ही सुर में नहीं हैं, दिल भी सुर में है और शब्दों पर भी उनका अधिकार है। सो वे बेहतरीन गीत लिख सके और गा सके।

मगर अनु मलिक का क्या किया जाए जिन्होंने "ऊँची है बिल्डिंग-लिफ्ट तेरी बंद है" टाइप के गीत खुद लिखे और नाम बेचारे उस गीतकार का दे दिया, जो फिल्म में था। बाद में अर्थहीन और बुरे गीतों का ढेर लग गया। मगर ये दौर भी खत्म हुआ और प्रसून जोशी व स्वानंद किरकिरे जैसे गीतकार मैदान में आए।

इन गीतकारों में भले ही उर्दू और उर्दू शायरी की वैसी समझ नहीं है, पर ये हिन्दी के ही समानार्थी शब्दों को फिल्मी गीतों में ढालकर हिन्दी गीतों की भाषा को समृद्ध कर रहे हैं। मुमकिन है ये मीटर में गच्चा खा जाएँ पर गीत असरदार बन पड़ता है। इन गीतकारों की एक ताकत तो यह है कि ये किसी की नकल नहीं करते।

इन्हें पता है कि ये शैलेंद्र, साहिर और गुलजार नहीं हैं, हो भी नहीं सकते। तकलीफ उन गीतकारों से होती है, जो नकल करते हैं। "एजेंट विनोद" के गीतकार ने तो गुलजार की नकल मारी है। अब कहाँ गुलजार और "एजेंट विनोद" का अनाम गीतकार (नेट पर भी कहीं गीतकार का नाम नहीं है)। वैसे फिल्मी गीत लिखना सरल काम तो है। आधा काम संगीतकार कर देता है, आधा काम नृत्य निर्देशक और सिने सितारे अपने हाव-भाव से कर डालते हैं। ऐसे में बहुत औसत काम भी छुप जाता है, धक जाता है। मगर बहुत ज्यादा दिन तक नहीं छुपा रहता।

होना यह चाहिए कि जिस तरह संगीत निर्देशक का नाम महत्व के साथ पोस्टर पर दिया जाता है, गीतकार का भी दिया जाए। फिलहाल जावेद अख्तर या गुलजार गीत लिखें तो निर्माता नाम हाइलाइट करता है, वरना नहीं। अच्छे गीतकार चाहिए तो उन्हें नाम भी देना ही पड़ेगा। नेट पर भी किसी नए गीतकार का नाम ढूँढने में पसीना आ जाता है। बहरहाल "एजेंट विनोद" का वो मुजरा सुनना अपनी काव्यचेतना पर चोट सहने जैसा है।

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