फिल्मकार महेश भट्ट समझते हैं कि परवीन बॉबी के बारे में लिखना आसान नहीं है। यह तब और भी कठिन हो जाता है जब आपका वह अजीज इस दुनिया में न हो। दोनों के संबंधों के बारे में बहुत कुछ लिखा गया है लेकिन वे मानते हैं कि परवीन का जाना उनके लिए बहुत कुछ खोने जैसा है। भट्ट ने इस आलेख में अपने दर्द को व्यक्त किया है।
परवीन की याद में
जब बात मुझ पर आती है तो मैं समझता हूँ कि क्यों हम अपने चाहने वालों को हमेशा जीवित देखना चाहते हैं।
जब मेरी माँ की मृत्यु हुई और मैंने उसे कब्र में उतारा तो मुझे लगा कि मैं भी उसके साथ चला जाऊँ। पर मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि यदि कोई अजीज जाए तो उसके शरीर को जानें दें पर उसकी यादों को हमेशा अपने दिल में सँजोकर रखें। उनकी यादों को इतना मधुर बनाएँ कि हर कोई उनको गुनगुना सके। मैं चाहता हूँ उनके जीवन को और उनके सपनों को स्क्रीन पर दिखाना और आशा जगाना!
'वो लम्हे' परवीन बॉबी की यादों को समर्पित है, ऐसी स्त्री को समर्पित जिसे मैंने चाहा और खो दिया।
मुंबई की गलियाँ और उसकी यादें..लगता है जैसे कल ही की तो बात है। जिस दिन परवीन की मृत्यु हुई मैंने महसूस किया कि मेरे तमाम दावों के बावजूद उसकी यादें समय के साथ भी धुँधली नहीं पड़ीं हैं। परवीन के साथ संबंध टूटना एक पुरानी कहानी है। लेकिन मैं यह सोचता हूँ कि एक ऐसे व्यक्ति के साथ रहना कितना मुश्किल है, जिसका मानसिक संतुलन खो गया हो। यह सब होने के पहले जिस सुबह मैंने परवीन का घर छोड़ा
पुरानी यादों में खो गया। वह प्रकाश मेहरा के साथ थी और मैं अपने संघर्ष के दिनों में अपने ही जैसे अन्य लोगों के साथ महबूब स्टूडियो में था। पीछे मुड़कर याद करूँ तो मुझे याद आता है कि एक अजनबीपन की महक हवाओं में थी। उसने मुझे 'गुडबाय किस' दिया और इस तरह दिया कि उसका मेकअप न बिगड़े। मैं नहीं जानता था कि जिस परवीन को मैं जानता हूँ उसे मैं आखिरी बार देख रहा हूँ। मैं उसकी वो छवि कैसे भुला सकता हूँ?
जब मैं उस शाम घर आया तो मैंने देखा परवीन मेकअप करके और फिल्मी पोशाक पहनकर कमरे के कोने में खड़ी है उसके हाथ में चाकू है और वह डर के मारे काँप रही है, मैंने उसे ऐसा पहले कभी नहीं देखा, वह फुसफुसाई-'महेश दरवाजा बंद कर दो वो लोग हमें मारने आ रहे हैं, जल्दी से दरवाजा बंद कर दो।'
और उन्हीं शब्दों के साथ मेरा प्यार, मेरा जुनून, सब कुछ खत्म हो गया। मैंने उसकी आँखों में पागलपन देखा और चेहरे पर मौत। जिस व्यक्ति को मैं जानता था वह मर चुका था साथ ही वह रिश्ता भी मर गया था जिसके लिए हम जाने जाते थे। परवीन मेरे सामने टुकड़ों में बँटना शुरु हो गई थी। मैं कुछ भी नहीं कर सकता था कोई भी उसे लौटा नहीं सकता था।
परवीन की बीमारी आनुवांशिक थी। उसके ठीक होने के अवसर बहुत कम थे। जो डॉक्टर उसका इलाज कर रहे थे हमें कड़वा सच नहीं बता रहे थे क्योंकि इसके पीछे उनका व्यवसायिक स्वार्थ काम कर रहा था। यही वह कठिन समय था जब मैंने जाना कि मानसिक रूप से संतुलन खोने के बाद क्यों किसी को हम स्वयं ही आत्महत्या करने के लिए प्रेरित करते हैं। इसी वजह से मैं मनोचिकित्सकों को हमारी संस्कृति का दुश्मन मानता हूँ। जो ऐसे लोगों को क्रूर नैतिकता के तंत्र में लपेटना चाहते हैं।
परवीन का पागलपन उन सभी लागों के डर का कारण बन रहा था जो उसे फिर से कैमरे के सामने लाना चाहते थे। मनोचिकित्सकों ने हाथ ऊँचे कर दिए थे और उसकी भोली माँ पर इलेक्ट्रिक शॉक देने के लिए दबाव बढ़ रहा था। जिसकी परिणति इस रूप में हुई कि मुझे उसे लेकर कोडई के जंगलों में जाना पड़ा जहाँ हमने बहुत खूबसूरत पल बिताए, इसे 'वो लम्हे' में मोहित सूरी और शगुफ्ता रफीक पर सुंदरता के साथ फिल्माया गया है। इस फिल्म के माध्यम से हमारा उद्देश्य दर्शकों को दुखी या सुखी करना नहीं है लेकिन उस औरत की यादों की खुशबू का अहसास दिलाना है जो समय और स्थान से परे जीती थी।
एक स्वयंभू पादरी ने मुझसे पूछा कि मैं परवीन के हादसे को भुनाकर पैसे कमाना क्यों चाहता हूँ तो मैंने हँसकर उत्तर दिया-'मैं आपके इस व्यवहार से आश्चर्य में पड़ गया हूँ आप लोगों की ओर से पूछे गए इन बेतुके सवालों से हैरान हूँ। आप जैसे लोगों ने जीसस को कष्ट दिया और उससे पैसे बनाए यहाँ तक कि अभी भी बनाते आ रहे हैं। मैं तो अपने दोस्त की यादों को ही भुना रहा हूँ जो सिर्फ मेरी और मेरी दोस्त थी। क्या अब आप इन यादों का भी कॉपीराइट कराएँगे? ऐसे मामले में आप मीडिया वालों पर तलवारें भाँजने लगते हैं और स्वयं हमेशा ही हादसों से कमाई करते हैं।' मेरे ऐसे उत्तर की पादरी को उम्मीद नहीं थी।
दुख आदमी के दिमाग को बिखराकर रख देता है। अपनी जिंदगी के घावों पर मरहम लगाने का मेरा तरीका है लिखना और फिल्म बनाना। 'वो लम्हे' मेरे दिल की गहराइयों से आती है इसने परवीन की मौत के बाद से ही पनपना शुरु कर दिया था। फिर मेरी बेटी पूजा को मेरी पहली पत्नी के घर से एक टेप भी मिला जो उसने मुझे लाकर दिया।
टेप में एक पत्र था जो परवीन ने रिकार्ड किया था जिसमें उसने अपनी बीमारी के बारे में, अपने अकेलेपन के बारे में और मनोरंजन की दुनिया से कट जाने के बारे में सब कुछ लिखा था। बीच बीच में उसकी चुप्पी ने वह सब कुछ कहा जो वह शब्दों में नहीं कह पाई इससे पता चलता है कि हमारे संबंध कैसे थे। मुझे अभी भी एक बात का पछतावा है कि मैं उसकी बीमारी को आते हुए नहीं देख सका।
परवीन के बीमार होने के पहले एक दिन चाँदनी रात में मैंने किसी के हल्के स्वर में रोने की आवाज सुनी। देखा तो वह बिस्तर के दूसरे कोने से गायब थी। उसकी जेब्रा डिजाइन वाली चादर भी गायब थी। मैं बेडरूम से बाहर भागा तो देखा परवीन सीप से बने लैंप के पास बैठकर रो रही थी। मैं यह जानने के लिए उसके पास गया कि बात क्या है। पर वो एकदम से हरकत में आ गई और मुझसे लिपट गई और अपनी चादर से ढँक लिया। सुबह होने लगी थी, पड़ोस के इस्कॉन मंदिर से 'हरे रामा हरे कृष्णा' के स्वर आने लगे थे और वह भी सामान्य हो गई थी।
अचानक ही वह बाथरूम गई और नहाने के बाद सफेद कुर्ता-पायजामा पहन लिया। लाल कालीन पर छोटा सा मैट बिछाया और नमाज पढ़ने लगी। पिछले साढ़े तीन साल के संबंधों में मैंने उसे ऐसा करते पहले कभी नहीं देखा था।
कभी न भूलने वाला दृश्य था वह! कमरे के अँधेरे में सुबह की चमकीली आभा से उसका रूप अद्भुत लग रहा था, उसके होंठ प्रार्थना बुदबुदा रहे थे और आँखों से श्रद्धा आँसू बनकर बह रही थी आज भी मेरी स्मृति में उसका वही रूप घूमता है। प्रार्थना खत्म करने के बाद वह टेबल लगाने लगी और मोमबत्तियाँ जला दीं, सूर्य का प्रकाश भी उस पर पड़ रहा था। फिर वह किचन में गई और नाश्ता बनाने लगी। उसे घरेलू औरतों की तरह काम करना अच्छा लगता था।
जैसे ही दिन ढला हमारे बीच की चुप्पी उसके होंठों पर आ रही मुस्कान से टूटी पर दूसरे ही पल उसकी आँखों में आँसू आ गए। मैं नहीं जान ही पाया कि उस रात उसे क्या हुआ था और अब उसके दिमाग में क्या चल रहा है। वह अपनी हथेलियों को घूरती हुई सिगरेट पीती हुई बैठ गई और अंततः मुझसे बोली-'यदि तुम खिड़की बंद कर दो और मुझे इस गरजते समुद्र से बचा लो तो मैं तुम्हें बताऊँगी कि कल रात क्या हुआ था।' तब उसने अपनी जिंदगी की वह दुखद घटना बताई जिसे उसने पूरी दुनिया से छिपाकर रखा था।
उसने अहमदाबाद के दंगों के बारे में बताया। जहाँ तक मुझे याद पड़ता है वह 1969 के कत्ले आम की बात कर रही थी जिसमें 4,000 लोगों के मारे जाने की खबर थी, अधिकांश लोग मुसलमान थे। मुस्लिम लड़कियों के साथ बलात्कार की खबरें आ रही थीं परवीन को बचाने के लिए नन्स ने उसे मोटे गद्दों के बीच लपेटकर ट्रक में सवार करके सुरक्षित स्थान पर पहुँचा दिया। जब उसने कहा तुम नहीं जानते कि गद्दों के बीच छिपकर जाते हुए हर पल यही भय सता रहा था कि कहीं लोग ट्रक रोककर मुझे निकालेंगे, और बलात्कार करके टुकड़ों में काट देंगे। उसने जैसा कहा बिल्कुल वैसा ही मुझे आज तक याद है। मेरी पत्नी कहती है कि यही वह हादसा होगा जिससे उसे मानसिक त्रास होता रहा और उसके पागल हो जाने की भी यही वजह रही होगी। यदि आप मुझसे पूछें तो मैं कुछ नहीं कह पाऊँगा।
जब मैंने लिखना और फिल्म बनाना शुरु किया तो लगा कि हर चीज बिल्कुल साफ है। अब मैं बूढ़ा हो गया हूँ मैं समझ सकता हूँ कि यह कितना गलत होगा अगर मैं कहूँ कि यह मेरे और परवीन बॉबी के संबंधों पर बनी कहानी है। किसी बात से अनजान रहना उसे छोड़ देना नहीं है बल्कि यह तो एक शुरुआत है।
जिंदगी खत्म नहीं होती लेकिन फिल्में होती हैं और उनके साथ जीवन, विचार और सपने भी खत्म होते हैं। हम फिल्म में पात्रों को उनकी जिंदगी के शीर्ष पर या उनके मौत के समय देखते हैं और वे समय के साथ स्थिर हो जाते हैं। अफ्रीका के किसी देश में एक कहानीकार अपनी कहानी के अंत पर आ गया, उसने अपनी हथेली जमीन पर रखी और कहा-'मैं अपनी कहानी यहीं खत्म करता हूँ।' फिर आगे कहा-'ताकि कोई और यहीं से इसे शुरु कर सके।'