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श्याम बेनेगल के गोकुल, मथुरा और वृंदावन!

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चौदह दिसंबर 1934 को हैदराबाद से 15 किलोमीटर दूर एक छोटे से कस्बे त्रिमुलगरी में जन्मे श्याम बेनेगल के पुरखे दक्षिण कनारा (कर्नाटक) से यहाँ आकर बसे थे। कनारा वह इलाका है, जहाँ मराठी से मिलती-जुलती कोंकणी भाषा बोली जाती है। बचपन में तेलुगु और कन्नड़ से भी निकटता के कारण श्याम ने अपनी हिन्दी फिल्मों में इन लोकभाषाओं का बेहतरीन इस्तेमाल किया।

श्याम के पूर्वज सारस्वत ब्राह्मण थे। इस कुलीन पृष्ठभूमि का उन्होंने सिनेकर्म के धरातल पर भी बखूबी निर्वाह किया। श्याम कभी विवादों में नहीं घिरे और उनका व्यक्तिगत जीवन बेदाग रहा। श्याम के पिता श्रीधर बेनेगल ने उम्र में अपने से काफी छोटी सरस्वती (श्याम की माँ) से प्रेम विवाह किया था। चौदह वर्षीया सरस्वती गाँव के स्कूल में पढ़ने वाली एकमात्र लड़की थीं, जब श्याम के पिता से उनका विवाह हुआ। वे बसरूर, दक्षिण कर्नायक में जन्मी और उनका मूल नाम भी यही था।

जादुई लालटेन से प्या
श्याम के पिता काफी दिलचस्प इनसान थे। पेशेवर छायाकार श्रीधर बेनेगल ने एक प्रोजेक्टर (फिल्म प्रदर्शक) भी घर में लाकर रखा था, जिसके सहारे वे परिवार के समक्ष अकसर फिल्मों का प्रदर्शन करते थे। परिवार में पैदा हुए प्रत्येक बच्चे का जीवनवृत्त वे तब तक कैमरे में उतारते रहते, जब तक दूसरा नौनिहाल घर में नहीं आ जाता।

श्याम छह बहनों और चार भाइयों के अपने भरे-पूरे परिवार को 'क्लब' की संज्ञा देते थे। ब्रितानवी राज में केंटोनमेंट (सेना की छावनी) का दर्जा प्राप्त उनका छोटा-सा कस्बा श्रीधर बेनेगल द्वारा स्थापित एक स्थानीय स्टूडियो के जरिये ही फिल्म जगत से रूबरू होता था। इसी दौरान श्याम के पिता ने उन्हें मैजिक लैंटर्न (जादुई लालटेन) लाकर दी। उपहार स्वरूप मिले इस खिलौने से परदे पर चलती-फिरती परछाइयों का भ्रम होता था।

श्याम के बाल अवचेतन पर इन्हीं छवियों ने हमेशा के लिए अधिकार जमा लिया। वे अपने भाइयों के साथ रोज सोने से पहले इस खिलौने का जादू देखते थे। बाद में यह प्रक्रिया हैदराबाद के प्रसिद्ध गैरीसन सिनेमा में लगने वाली फिल्मों के नियमित अवलोकन में बदल गई।

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गाँधीजी का चरख
बेनेगल परिवार राजनीतिक दृष्टि से काफी जागरूक सदस्यों का समूह था। श्रीधर बेनेगल पूरी तरह गाँधीवादी विचारों के थे। उन्होंने अपने बच्चों को गाँधी दर्शन की ओर उन्मुख करने के लिए एक चरखा भी लाकर रखा, जिस पर सूत का कातना परिवार के हर सदस्य की दिनचर्या का अनिवार्य हिस्सा हुआ करता था।

श्याम के बड़े भाई कोलकाता जाकर कट्टर कम्युनिस्ट हो गए थे, जबकि छोटे भाई ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) की शाखाओं में जाना प्रारंभ कर दिया। श्याम ने इन दोनों ध्रुवों के बीच अपने लिए मध्यमार्ग का चुनाव किया। वे स्वाधीनता आंदोलन के महानायकों नेहरू, गाँधी और सुभाषचंद्र बोस के प्रशंसक बन गए।

बचपन में उपहार स्वरूप मिली पंडित नेहरू की दो पुस्तकों- पिता के पत्र पुत्री के नाम और डिस्करी ऑफ इंडिया का भी उनके जीवन पर गहरा प्रभाव रहा। विभाजन के बाद बेनेगल परिवार को आर्थिक मुसीबतों का सामना करना पड़ा। ब्रिटिश राज के जाते ही श्याम के पिता की आमदनी का जरिया खत्म हो चुका था।

पैतृक घर की नीलामी की नौबत आ गई। श्याम के शब्दों में 'तब मेरी उम्र बमुश्किल 11 वर्ष रही होगी। वे बड़े कठिनाई भरे दिन थे। इसी संक्रमणकाल से मिले जीवट के सहारे मैंने छात्र आंदोलन में हिस्सा लेना शुरू कर दिया। छात्र जीवन में हमने कई मोर्चे निकाले।

पहले गुरु : गुरुदत्
बहुत कम लोग जानते हैं कि प्रख्यात फिल्मकार गुरुदत्त रिश्ते में श्याम बेनेगल के चचेरे भाई थे। फिल्मों के प्रति श्याम की दिलचस्पी जगाने में उनका बड़ा हाथ था। महज बारह वर्ष की उम्र में श्याम ने अपने पिता के सोलह एम.एम. कैमरे के सहारे अपनी पहली फिल्म बनाई 'छुट्टियों में मौज-मजा।'

विद्यालयीन जीवनकाल में श्याम को डरावनी फिल्में देखने का शौक हुआ। श्याम और उनके भाई ने गैरीसन सिनेमा के एक कर्मचारी को पटा लिया था और ये सिनेप्रेमी प्रोजेक्शन रूम में मौजूद एक छिद्र से 'कैट पीपुल रिटर्न ऑफ फ्रेंकस्टाइन', 'रेबेका' जैसी रहस्य-रोमांच से भरपूर डरावनी फिल्में देखा करते थे।

हैदराबाद की उस्मानिया यूनिवर्सिटी के निजाम कॉलेज में अध्ययन के दौरान श्याम की सिनेमा में गंभीर दिलचस्पी बढ़ी। इसी बीच उन्होंने एक युवा सम्मेलन में पंडित नेहरू को सिनेकर्म की महत्ता पर प्रकाश डालते और इसके सामाजिक प्रभावों का विश्लेशण करते सुना। 'चाइल्डहुड ऑफ मॅक्सिम गोर्की' (1938) जैसी फिल्मों तथा एरॉल फ्लिन, विली वाइल्डर, जान हस्टन जैसी हॉलीवुड की सिने शख्सियों से फिल्मों के जरिए परिचित होने के बाद श्याम ने सिनेमा से संबंधित किताबों का अध्ययन शुरू किया।

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सिनेकर्म में छलाँ
कॉलेज जीवन में श्याम तैराकी के चैम्पियन हुआ करते थे। इसी जोशोखरोश के साथ उन्होंने सिनेकर्म के सागर में भी छलाँग लगाई। मुख्यधारा के सिनेमा में उनके पसंदीदा फिल्मकार थे- मेहबूब खान, राजकपूर, गुरुदत्त और बिमल रॉय। श्याम के अनुसार कालांतर में वे बासु चटर्जी की 'सारा आकाश' और मणि कौल की 'उसकी रोटी' जैसी फिल्मों से भी काफी प्रभावित हुए।

मेहबूब खान की 'औरत' (1940), बिमल रॉय की 'दो बीघा जमीन' (1953), राजकपूर अभिनीत 'जागते रहो' वे फिल्में थीं, जिन्होंने श्याम के रचनात्मक विकास पर गहरा असर डाला। अपने आदर्श सत्यजीत राय से प्रेरणा पाकर अपनी फिल्मों के लए श्याम रेखांकन भी करने लगे।

इसी दौरान कविता पर भी हाथ आजमाया, पर यह विधा उन्हें ज्यादा रास नहीं आई। एक मित्र के कहने पर श्याम नेशनल एड एजेंसी में कॉपी राइटर बन गए। विज्ञापन जगत से परिचय होते ही श्याम ने मुंबई का रुख किया और प्रतिष्ठित विज्ञापन संस्था 'लिन्टास' के फिल्म विभाग से जुड़ गए। यहाँ रहते हुए उन्होंने पहले ही साल लक्स, रेक्सोना, कोलगेट जैसे उत्पादों की एक सौ पचास से ज्यादा अवॉर्ड विजेता विज्ञापन फिल्में बनाईं।

दरअसल अपनी पहली फीचर फिल्म के निर्माण से पूर्व श्याम लगभग नौ सौ छोटी-बड़ी विज्ञापन फिल्में बना चुके थे। लिन्टास कंपनी में कार्यरत रहते हुए श्याम की मुलाकात नीरा मुखर्जी से हुई, जो दिल्ली के मिरांडा हाउस कॉलेज में स्नातक उपाधि लेकर विज्ञापन जगत में करियर तलाशने मुंबई आई थीं। 1963 में श्याम ने नीरा के साथ शादी कर ली। नीरा के सुझाव पर ही श्याम ने फिल्म निर्माण की ओर कदम बढ़ाए।

नीरा और श्याम की बेटी पिया उनकी सिने निर्माता कंपनी 'सहयाद्रि फिल्म' की व्यावसायिक भागीदार है। साठ के दशक में श्याम को गुजरात की माही बाँध परियोजना पर एक वृत्तचित्र बनाने का प्रस्ताव मिला। 'चाइल्ड ऑफ द स्ट्रीट' (1967) शीर्षक से निर्मित श्याम का यह वृत्तचित्र अंतरराष्ट्रीय सिनेकर्मी लुई मेले द्वारा देखा और सराहा गया, जो उन दिनों भारत प्रवास पर थे। लुई और श्याम बाद में मित्र बन गए।

होमी भाभा छात्रवृत्ति पर बाल सिनेकर्म का अध्ययन करने के पश्चात श्याम ने प्रख्यात रंगकर्मी हबीब तनवीर की कहानी पर एक बाल फिल्म 'चरणदास चोर' का निर्माण किया। टेली रिपोर्ताज 'यात्रा' और 'कथा सागर' जैसे छोटे परदे के धारावाहिकों के निर्माण की रूपरेखा भी उनके द्वारा इसी दौरान बना ली गई। 1980-83 तक फिल्म एवं टेलीविजन संस्थान पुणे के अध्यक्ष रहते हुए श्याम का सिनेमा जगत के प्रति जो रुझान पनपा था, वह आज तक जारी है।

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