Select Your Language

Notifications

webdunia
webdunia
webdunia
webdunia
Advertiesment

आरक्षण : फिल्म समीक्षा

हमें फॉलो करें आरक्षण : फिल्म समीक्षा

समय ताम्रकर

PR
बैनर : प्रकाश झा प्रोडक्शन्स, बेस इंडस्ट्रीज ग्रुप
निर्माता : फिरोज नाडियाडवाला
निर्देशक : प्रकाश झा
संगीत : शंकर-अहसान-लॉय
कलाकार : अमिताभ बच्चन, सैफ अली खान, दीपिका पादुकोण, मनोज बाजपेयी, प्रतीक, तनवी आजमी, मुकेश तिवारी, चेतन पंडित, यशपाल शर्मा, सौरभ शुक्ला
सेंसर सर्टिफिकेट : यू/ए * 2 घंटे 47 मिनट * 20 रील
रेटिंग : 2/5

आरक्षण एक ऐसा मुद्दा है जिस पर हर उम्र और वर्ग के लोगों के पास अपने-अपने तर्क हैं। वर्षों से इस पर अंतहीन बहस चली आ रही है। इसी मुद्दे को निर्देशक प्रकाश झा ने अपनी फिल्म के जरिये भुनाने की कोशिश की है।

सबसे पहले तो उन्होंने फिल्म का नाम ही आरक्षण रखा, जिसकी वजह से यह पिछले कुछ माहों से लगातार चर्चा में है। फिर फिल्म के ट्रेलर ऐसे तैयार किए जिससे लगा कि इस विषय पर एक गंभीर फिल्म देखने को मिलेगी, जो सही या गलत का पड़ताल कर कुछ नई बात दर्शकों के समक्ष रखेगी, लेकिन पहले घंटे में आरक्षण के पक्ष और विपक्ष में की गई कुछ डॉयलागबाजी के बाद फिल्म से आरक्षण का मुद्दा हवा हो जाता है।

यह फिल्म अच्छाई और बुराई की लड़ाई बन जाती है। एक फैमिली ड्रामा बन जाती है। दर्शक सिनेमाहॉल जब छोड़ता है तो उसे लगता है कि वह देखने कुछ और गया था और दिखाया कुछ और। जैसे फिल्म की पब्लिसिटी एक कॉमेडी फिल्म की गई हो और एक्शन मूवी दिखा दी गई हो।

भोपाल के एक प्राइवेट कॉलेज एसटीएम में प्रभाकर आनंद प्रिंसीपल है। अपनी ईमानदारी और सिद्धांतों पर अडिग रहने के कारण वह सभी का सम्मानीय है। उसके कॉलेज में दलित वर्ग का दीपक कुमार (सैफ अली खान) प्रोफेसर है। ऊंची जाति के मिथिलेश (मनोज बाजपेयी) जैसे कुछ प्रोफेसर उससे नफरत करते हैं।

webdunia
PR
दीपक कुमार को प्रभाकर आनंद की बेटी पूरबी (दीपिका पादुकोण) पसंद करती है। कॉलेज में पढ़ने वाला छात्र सुशांत (प्रतीक) इन सब से घुला-मिला है। इनके संबंध तब तक मधुर रहते हैं जब तक सुप्रीम कोर्ट द्वारा अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और ओबीसी के लिए 27 प्रतिशत का आरक्षण तय नहीं कर दिया जाता है। जैसे ही यह फैसला आता है आरक्षण के मुद्दे को लेकर इनके संबंधों में खटास आ जाती है।

प्रभाकर आनंद किस ओर है, यह स्पष्ट न करने से सवर्ण वर्ग वाले भी नाराज हो जाते हैं और दलित वर्ग का दीपक कुमार भी। इसके बाद फिल्म प्रभाकर आनंद बनाम मिथिलेश की लड़ाई में बदल जाती है।

मिथिलेश कॉलेज में न पढ़ाते हुए अपनी कोचिंग क्लास में पढ़ाता है। प्रभाकर आनंद जब उसके साथ सख्ती करते हैं तो मिथिलेश बदला लेते हुए उन्हें प्राचार्य पद से हटने पर मजबूर करता है। उसका घर और सम्मान छीन लेता है। किस तरह से प्रभाकर आनंद अपना गौरव फिर से प्राप्त करते हैं, ये फिल्म का सार है।

फिल्म तब तक ठीक लगती है जब तक आरक्षण को लेकर सभी में टकराव होता है। दलित वर्ग क्यों आरक्षण चाहता है, इसको सैफ के संवादों से दर्शाया गया है। जिन्हें आरक्षण नहीं मिला है, उन्हें इसकी वजह से क्या नुकसान उठाना पड़ा है, इसे आप प्रतीक द्वारा बोले गए संवादों और एक-दो घटनाक्रम से जान सकते हैं।

प्रभाकर आनंद की बीवी का कहना है कि बिना आरक्षण दिए भी दलित वर्ग का उत्थान किया जा सकता है। उन्हें आर्थिक सहायता दी जाए, मुफ्त में शिक्षा दी जाए, प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए तैयार किया जाए। इस पर प्रभाकर का कहना है कि ये सब बातें नहीं हो पाई हैं, इसीलिए आरक्षण किया गया है।

शुरुआत में सैफ के इंटरव्यू देने वाला सीन, अमिताभ-सैफ, सैफ-प्रतीक के बीच फिल्माए गए सीन उम्दा हैं। सैफ के विदेश जाते ही फिल्म की रौनक गायब हो जाती है। यहां पर झा कोचिंग क्लासेस द्वारा शिक्षा को व्यापार बनाए जाने का मुद्दा उठाते हैं जो बेहद ड्रामेटिक है। यह पार्ट ज्यादा अपील इसलिए नहीं करता क्योंकि बार-बार यह अहसास होता रहता है कि फिल्म दिशाहीन हो गई है।

अमिताभ के कैरेक्टर को महान बनाने के चक्कर में भी फिल्म भटकी गई है। अंत में अमिताभ का कैरेक्टर जीतता जरूर है, लेकिन अपने बल पर नहीं, बल्कि हेमा मालिनी के किरदार के दम पर जो अचानक फिल्म में प्रकट हो जाती हैं और उनकी बात सभी सुनते हैं। मनोज बाजपेयी को छोड़ अचानक सबका हृदय परिवर्तन होना भी फिल्मी है।

प्रकाश झा का निर्देशन खास प्रभावित नहीं करता। उन्होंने ना केवल दृश्यों को लंबा रखा बल्कि कुछ गैर-जरूरी सीन भी फिल्माए। शुरुआती घंटे के बाद फिल्म पर से उनका नियंत्रण छूट जाता है। उनके लिखे संवाद कुछ जगह प्रभावित करते हैं। फिल्म में गाने केवल लंबाई बढ़ाने के काम आते हैं।

webdunia
PR
अमिताभ बच्चन को सबसे ज्यादा फुटेज दिया गया है और पूरी फिल्म उनके इर्दगिर्द घूमती है। बिग-बी को अभिनय करते देख अच्छा लगता है। सैफ अली की एक्टिंग उनके बेहतरीन परफॉर्मेंसेस में से एक है। एक दलित के गुस्से का इजहार उन्होंने अच्छे से किया है।

मनोज बाजपेयी की ओवर एक्टिंग अच्छी लगती है। प्रतीक एक बार फिर प्रभावित करते हैं। दीपिका पादुकोण के हिस्से में जो कुछ भी आया उन्होंने अच्छे से निभाया। छोटी भूमिका निभाने वाले सारे एक्टर्स ने अपना काम अच्छे से किया।

कुल मिलाकर ‘आरक्षण’ उन अपेक्षाओं पर खरी नहीं उतरती जो रिलीज होने के पहले दर्शकों ने इससे की थी।

Share this Story:

Follow Webdunia Hindi