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चाँदनी चौक टू चाइना : उबाऊ सफर

हमें फॉलो करें चाँदनी चौक टू चाइना : उबाऊ सफर

समय ताम्रकर

निर्माता : रोहन सिप्पी
निर्देशक : निखिल आडवाणी
संगीत : शंकर-अहसान-लॉय
कलाकार : अक्षय कुमार, दीपिका पादुकोण, रणवीर शौरी, गॉर्डन लियू, रिचर्ड यूआन, मिथुन चक्रवर्ती
रेटिंग : 1.5/5

हॉलीवुड की फिल्म कंपनी वॉर्नर ब्रदर्स को रमेश सिप्पी, मुकेश तलरेजा, रोहन सिप्पी और निखिल आडवाणी ने मिलकर किस तरह चूना लगाया, इसकी मिसाल है ‘चाँदनी चौक टू चाइना’। हॉलीवुड कंपनियों के दिमाग में ये बात घुसी हुई है कि बॉलीवुड की नाच-गाने और उटपटांग हरकतों वाली फिल्में बेहद पसंद की जाती हैं। इसी बात को आधार बनाकर सिप्पियों ने ‘चाँदनी चौक टू चाइना’ नामक फिल्म उन्हें टिका दी और अपनी जेबें भर लीं। फिल्म के लेखक श्रीराम राघवन ने इसकी कहानी लिखने के लिए हॉलीवुड की फिल्में देखने की भी तकलीफ नहीं उठाई। उन्होंने अपने निर्माता रमेश सिप्पी की ‘सीता और गीता’, ‘शोले’ जैसी फिल्मों से ही कहानी निकाल ली ताकि कॉपीराइट का मामला भी न हो।

‘चाँदनी चौक टू चाइना’ इतनी बेसिर-पैर फिल्म है कि आश्चर्य होता है कि इस पर इतना पैसा क्यों खर्च किया गया। वॉर्नर ब्रदर्स ने इस कहानी में ऐसा क्या देखा कि वे इसमें भागीदार बन गए। शायद उन्होंने रमेश सिप्पी के पिछले रिकॉर्ड को देख पैसा लगाया होगा।

सत्तर और अस्सी के दशक की ज्यादातर फिल्में मिलना-बिछुड़ना, खोया-पाया, डबल रोल, याददाश्त का चले जाना और फिर लौट आना, पुनर्जन्म, बदला, खलनायक का गाँव में आतंक फैलाना जैसे फार्मूलों पर आधारित रहती थीं। इन सब का घालमेल कर चाँदनी चौक टू चाइना में परोसा गया है। ‘ओम शांति ओम’ और ‘टशन’ के बाद चाँदनी चौक टू चाइना तीसरी ऐसी बड़ी फिल्म है जो उस दौर में बनने वाली फिल्मों पर आधारित है।

चाँदनी चौक में पराठे बेचने की दुकान में काम करने वाले सिद्धू (अक्षय कुमार) के सपने बड़े-बड़े हैं। वह अमीर बनना चाहता है, लेकिन मेहनत पर उसका यकीन नहीं है। एक दिन दो चीनी उसके पास आते हैं और वे सिद्धू को एक मशहूर चीनी योद्धा का पुनर्जन्म मानते हैं। चॉपस्टिक (रणवीर शौरी) नामक दुभाषिया सिद्धू को बेवकूफ बनाकर चीन पहुँचा देता है। चीन पहुँचकर सिद्धू को पता चलता है कि उसे होजो नामक आदमी से एक गाँव को छुड़ाना है, जो बेहद खतरनाक है। गाँव के लोग सिद्धू को महान योद्धा मानते हैं, लेकिन होजो के सामने सिद्धू की पोल खुल जाती है। जब होजो सिद्धू की खूब पिटाई करता है तो वह उसे मारने की कसम खाता है। एक कुंगफू मास्टर से वह कुंगफू सीखता है और अपना बदला लेता है।

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कहानी में सखी और म्याऊँ नामक दीपिका पादुकोण की दोहरी भूमिकाएँ भी हैं। सखी और म्याऊँ जुड़वाँ बहनें हैं और बचपन में होजो की वजह से बिछड़ गई थीं। होजो की वजह से ही उनकी माँ की मृत्यु हुई थी और उनके पिता की याददाश्त चली गई थी। सखी और म्याऊँ को होजो के बारे में पता चलता है तो वे भी उससे बदला लेना चाहती हैं। सिद्धू को कुंगफू उनके पिता ही सिखाते हैं। सिद्धू कामयाब होता है और आखिर में पूरे परिवार का मिलन हो जाता है।

पुरानी फिल्मों को देखकर भी नई कहानी ढंग से नहीं लिखी जा सकी। इस कहानी में ढेर सारे अगर-मगर हैं। माना कि सिनेमा के नाम पर थोड़ी छूट ली जा सकती हैं, लेकिन इसकी भी सीमा होती है। फार्मूला या मनोरंजक फिल्म बनाने के नाम पर दर्शकों को बेवकूफ तो नहीं समझा जा सकता। मसाला इतना भी मत डालो कि हाजमा खराब हो जाए।

निर्देशक निखिल आडवाणी का प्रस्तुतिकरण भी बेहद घटिया है। ऐसा लगा कि वे सत्तर और अस्सी के दशक में बनी फिल्मों का 'चाँदनी चौक टू चाइना' के जरिये मजाक उड़ा रहे हों। फिल्म की कहानी गंभीरता की माँग करती है, लेकिन उन्होंने इसे कॉमेडी के अंदाज में पेश किया है, जिससे मामला चौपट हो गया है। कॉमेडी का भूत उन पर ऐसा सवार था कि हर दृश्य में उन्होंने कॉमेडी घुसेड़ दी चाहे वो रोमांटिक दृश्य हो, भावुक दृश्य हो या एक्शन सीन हो।

कॉमेडी के नाम पर हास्यास्पद दृश्य रचे गए हैं। मिथुन चक्रवर्ती जब अक्षय कुमार को लात जमाते हैं तो अक्षय रॉकेट की तरह आसमान में जाते हैं और धड़ाम से नीचे गिरते हैं। होजो के एक आदमी को अक्षय उठाकर जोर-जोर से घुमाने लगते है तो आँधी चलने लगती है और आसपास के लोग उड़ने लगते हैं। अक्षय और दीपिका जब एक बिल्डिंग से गिरते हैं तो दीपिका छाता खोल लेती है, जो पेराशूट का काम करता है। ऐसे एक-दो दृश्य तो बर्दाश्त किए जा सकते हैं, लेकिन जब पूरी फिल्म ही ऐसी हो तो दर्शक ‘चाँदनी चौक टू चाइना’ बनाने वालों की अक्ल पर सिर्फ तरस खा सकते हैं। इन दृश्यों को देखकर भला कोई कैसे हँस सकता है। पैसा खर्च करने में भी अक्ल का इस्तेमाल होता है, लेकिन निखिल आडवाणी ने निर्माताओं का पैसा बर्बाद करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। 'सलाम-ए-इश्क' जैसी डब्बा फिल्म बनाने के बाद एक और डब्बा फिल्म उन्होंने अपने नाम कर ली है।

टशन हो या सिंह इज किंग या चाँदनी चौक टू चाइना, अक्षय का किरदार हर जगह एक जैसा नजर आता है। वही जड़ बुद्धि वाले व्यक्ति का। उन्हें टाइप्ड होने से बचना चाहिए। चाँदनी चौक टू चाइना में उन्होंने दर्शकों को हँसाया, लेकिन अब दोहराव महसूस होने लगा है। उनकी क्षमताओं का पूरा दोहन निर्देशक नहीं कर पाए। खासकर स्टंट दृश्यों में अक्षय का और बेहतर उपयोग किया जा सकता था। फिल्मों के चयन के मामले में उन्हें सावधानी बरतना चाहिए। दीपिका पादुकोण खूबसूरत लगीं और उन्होंने स्टंट दृश्य अच्छे से अभिनीत किए। गॉर्डन लियू ने खलनायकी के तेवर दिखाए। रिचर्ड यूआन, मिथुन चक्रवर्ती और रणवीर शौरी ठीक-ठाक रहे।

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संवादों के जरिये कुछ जगह हँसने का अवसर मिलता है। चीनी भाषा में भी ढेर सारे संवाद हैं, हालाँकि उन्हें अँग्रेजी सबटाइटल के साथ दिखाया गया है, लेकिन हिंदी में उन्हें दिया जाता तो ज्यादा दर्शकों को इसका लाभ मिलता। फिल्म का तकनीकी पक्ष सशक्त है। स्टंट दृश्य, फोटोग्राफी पर बहुत मेहनत की गई है। संगीत निराशाजनक है। हिट गानों का अभाव अखरता रहता है।

कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि ‘चाँदनी चौक टू चाइना’ में न चाँदनी चौक के पराठों की महक है और न चाइना के नूडल्स का स्वाद। इस फिल्म को देखने में पैसा खर्च करने के बजाय तो नूडल्स खरीदकर खाना बेहतर है।

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