नाकामियों से परेशान शेखर को एक निर्माता मिलता है और अपनी फिल्म निर्देशित करने को कहता है। उसकी शर्त है कि हीरो राजू रहेगा। फिल्म शुरू हो उसके पहले निर्माता की मौत हो जाती है। शेखर अपने पड़ोसियों की मदद से फिल्म शुरू करता है, लेकिन उसका और राजू का ईगो आड़े आता है। किस तरह से शेखर फिल्म पूरी करता है और मानसी को फिर पाता है, ये फिल्म का सार है। फिल्म की शुरुआत अच्छी है और उम्मीद जगाती है कि एक उम्दा फिल्म देखने को मिलेगी। राजू के स्क्रिप्ट चुराने तक फिल्म में पकड़ हैं। इसके बाद शेखर और मानसी की प्रेम कहानी और उनका झगड़ा फिल्म को बोझिल बना देता है और ‘अभिमान’ की याद दिलाता है। शेखर जब फिल्म बनाना शुरू करता है, तब फिल्म में फिर पकड़ आती है, लेकिन क्लायमैक्स में मामला फिर बिगड़ जाता है। खुद्दार शेखर पहले राजू के साथ फिल्म बनाने से इंकार कर देता है। इस बात पर अपनी पत्नी से झगड़ लेता है, लेकिन बाद में क्यों राजी हो जाता है, ये स्पष्ट नहीं किया गया है। मानसी और शेखर के झगड़े और फिर सुलह बनावटी लगते हैं। कुंठित होकर शेखर का वेटर के रूप में काम करने वाला दृश्य इमोशन पैदा करने करने के लिए रखा गया है, लेकिन बचकाना लगता है। इस फिल्म में यह बताने की कोशिश की गई है कि सफलता का कोई शॉर्टकट नहीं होता है और मेहनत के जरिये ही मंजिल तक पहुँचा जा सकता है। लेकिन कहानी इस संदेश के साथ न्याय नहीं कर पाती। सकारात्मक पहलू की बात की जाए तो कहानी में कमियाँ होने के बावजूद फिल्म का स्क्रीनप्ले अच्छा है। इस वजह से दिलचस्पी बनी रहती है। फिल्म में कुछ मनोरंजक दृश्य भी हैं, जो हँसाते हैं। लेकिन ज्यादातर फिल्म इंडस्ट्री से जुड़े हुए हैं। जो लोग बॉलीवुड को नजदीक से जानते हैं, उन्हें ये ज्यादा मजा देंगे।
अक्षय खन्ना ने अपना रोल पूरी गंभीरता से निभाया है। अमृता राव के हिस्से में थोड़े-बहुत गाने और दृश्य आएँ। हर फिल्म में अरशद वारसी एक जैसा अभिनय कर रहे हैं, लेकिन फिर भी वे हँसाते हैं। चंकी पांडे ने अभिनय के नाम पर तरह-तरह के मुँह बनाए हैं। संजय दत्त और अनिल कपूर एक गाने में नजर आएँ, लेकिन बात नहीं बनी।
शंकर-अहसान-लॉय का संगीत उनके प्रतिष्ठा के अनुरूप नहीं है। केवल एक गीत ‘निकल भी जा’ याद रहता है।
कुल मिलाकर ‘शॉर्टकट : द कॉन इज़ ऑन’ एक औसत फिल्म है।