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सिकंदर : आतंकवाद और बचपन

हमें फॉलो करें सिकंदर : आतंकवाद और बचपन

समय ताम्रकर

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निर्माता : सुधीर मिश्रा, बिग पिक्चर्स
निर्देशक : पीयूष झा
संगीत : शंकर-अहसान-लॉय, जस्टिन, उदय, संदेश शांडिल्य
कलाकार : परज़ाद दस्तूर, आयशा कपूर, संजय सूरी, आर. माधवन, अरुणोदय सिंह
* यू/ए * 114 मिनट
रेटिंग : 2/5

कश्मीर में आतंकवाद को लेकर कई फिल्मों का निर्माण हुआ है, लेकिन पीयूष झा की फिल्म ‘सिकंदर’ थोड़ी हटकर है। इसमें दिखाया गया है किस तरह आतंकवादी, नेता अपने घिनौने मकसद के लिए बच्चों का उपयोग करने में भी नहीं हिचकते। लेकिन कमजोर स्क्रीनप्ले, अभिनय और निर्देशन की वजह से ‘सिकंदर’ किसी तरह का प्रभाव नहीं छोड़ पाती।

14 वर्षीय सिकंदर (परजान दस्तूर) को स्कूल से लौटते समय रास्ते में पिस्तौल मिलती है, जिसे वह अपनी दोस्त नसरीन (आयशा कपूर) के मना करने के बावजूद रख लेता है। इस हथियार से वह अपने उन दोस्तों को डराता है, जो उसे परेशान करते हैं।

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इसी बीच उसकी एक आतंकवादी से मुलाकात होती है, जो उसे बंदूक चलाना सिखाता है। एक दिन उसी आतंकवादी के साथ सिकंदर की झड़प होती है और वह उसे मार डालता है। इसके बाद सिकंदर मुसीबतों में फँसता जाता है और अंत में उसे समझ में आता है कि वह सेना, नेता और धर्म के ठेकेदारों का खिलौना बन गया है।

फिल्म की कहानी अच्छी है, लेकिन इसे ‍ठीक से विकसित नहीं किया गया है। खासतौर पर स्क्रीनप्ले ठीक से नहीं लिखा गया है। सिकंदर के पास पिस्तौल है, ये बात उसके साथ पढ़ने वाले और उसे नापसंद करने वाले तीन लड़कों को पता रहती है, लेकिन वे अपने टीचर या पुलिस को क्यों नहीं बताते, जबकि सिकंदर रोज पिस्तौल लेकर स्कूल जाता है। नसरीन का अंत में हृदय परिवर्तन, अपने पिता की हत्या करना और आर्मी ऑफिसर द्वारा सिकंदर को अपना बदला लेने के लिए बंदूक देना तर्कसंगत नहीं है। संजय सूरी और माधवन की बातचीत वाले दृश्य बेहद उबाऊ हैं।

निर्देशक के रूप में भी पीयूष झा प्रभावित नहीं करते हैं। फिल्म की ‍गति उबाने की हद तक धीमी है और कई दृश्यों का दोहराव है। अंतिम 15 मिनटों में घटनाक्रम तेजी से घटते हैं, जब यह भेद खुलता है कि सिकंदर को मोहरा बनाया गया है, लेकिन तब तक दर्शक फिल्म में अपनी रुचि खो बैठता है।

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अपने कलाकारों से भी पीयूष अच्छा काम नहीं ले पाए हैं। परजान दस्तूर और आयशा कपूर का अभिनय कुछ दृश्यों में अच्छा और कुछ में बुरा है। कई दृश्यों में उन्हें समझ ही नहीं आया कि चेहरे पर क्या भाव लाने हैं। ऐसा लगता है कि वे संवाद बोलने के लिए अपनी बारी का इंतजार कर रहे हों।

माधवन और संजय सूरी बेहद अनुभवी और प्रतिभाशाली कलाकार हैं, लेकिन ‘सिकंदर’ में वे निराश करते हैं। फिल्म की फोटोग्राफी साधारण है।

कुल मिलाकर ‍’सिकंदर’ निराश करती है।

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