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जरूरी है सरकारी स्कूलों में सुधार

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-जवाहर चौधरी

सर्वोच्च न्यायालय ने 1993 में ऐतिहासिक फैसला देते हुए शिक्षा को मौलिक अधिकार का दर्जा दिया था। इस संदर्भ में संविधान में छियालिसवाँ संशोधन भी किया गया। लगभग दो दशक के बाद 6 से 14 वर्ष के बच्चों को मुफ्त एवं अनिवार्य शिक्षा के अधिकार का विधेयक सदन में पास हो पाया है। इस विधेयक में खासतौर से कहा गया है कि हर स्कूल को अपने यहाँ 25 प्रतिशत स्थान निःशुल्क प्राथमिक शिक्षा के लिए रखना होंगे।

विधेयक में शिक्षकों द्वारा प्रायवेट ट्यूशन पर भी प्रतिबंध लगाया गया है, साथ ही बच्चों को शारीरिक या मानसिक दंड या प्रताड़ना न देने की व्यवस्था भी की है। विधेयक में कहा गया है कि यह हर पालक की जिम्मेदारी होगी कि वह अपने बच्चों को प्राथमिक शिक्षा के लिए निकट के स्कूल में दाखिल करवाए। किसी भी स्कूल को यह अधिकार नहीं होगा कि वह आयु के प्रमाण के अभाव में किसी बच्चे को दाखिला देने से मना कर सके।

हालाँकि इस विधेयक पर व्यापक चर्चा और बहस होना चाहिए थी किंतु जिस समय यह पारित हुआ, राज्यसभा में दो सौ तीस में से मात्र 54 सदस्य ही मौजूद रहे। बावजूद इसके पिछले सत्रह वर्षों में शिक्षा को लेकर आमजन और शिक्षाविदों में चिंतन-मनन जारी रहा। देश में इन दिनों स्कूल जाने की आयु में लगभग सोलह करोड़ बच्चे हैं।

अनुमान है कि लगभग चार करोड़ बच्चे निजी स्कूलों में पढ़ रहे हैं। वर्तमान विधेयक कहता है कि इन स्कूलों में पच्चीस प्रतिशत स्थान गरीब वर्ग के बच्चों के लिए रखे जाएँगे। इसका मतलब यह हुआ कि इन स्कूलों की क्षमता में पच्चीस प्रतिशत वृद्धि की जाएगी और उन्हें एक करोड़ बच्चों का समायोजन करना होगा।

बावजूद इसके करीब 11 करोड़ बच्चों के लिए वही बदहाल सरकारी स्कूल उपलब्ध रहेंगे। अतः इस बहुप्रतीक्षित विधेयक के पास हो जाने के बाद भी ज्यादातर बच्चों के लिए हालात नहीं बदलेंगे। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि सरकारी स्कूलों की हालत सुधारे बगैर हमें अच्छे परिणाम नहीं मिलेंगे।

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