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माँ जगदम्बा की आराधना का पर्व

कठिन तप से जगत्‌ जननी का आशीर्वाद

हमें फॉलो करें माँ जगदम्बा की आराधना का पर्व
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माँ आच्छे ऐ बारे दोलाए, जाबे माँ गांजे। अर्थात् शारदीय नवरात्र में माता दुर्गा इस बार पालकी में बैठकर आई हैं और हाथी पर आरूढ़ होकर विदा लेंगी। बाँग्ला पंचांग के अनुसार देवी का पालकी में आना इस वर्ष सुख-समृद्धि का द्योतक है, जबकि हाथी पर विदा लेना शांति के साथ शुभ का संकेत दे रहा है।

माँ जगदम्बा की आराधना का पर्व नवरात्रि सभी बड़े उल्लास से मनाते हैं। कुछ भक्त जहाँ कठिन तप करके जगत्‌ जननी का आशीर्वाद पाना चाहते हैं, तो वहीं बाँग्ला पंडालों में षष्ठी से प्रारंभ होने वाला दुर्गोत्सव हर्षोल्लास के साथ उत्सव के रूप में मनाया जाता है। जहाँ पूजन-अर्चन के साथ सभी के मन में उमंग और उत्साह रहता है कि माता अपने मायके आई हैं।

बाँग्ला परिवारों में शारदीय नवरात्रि की बैठकी से महालय का प्रारंभ हो जाता है। जिसमें प्रातः चार बजे से देवी की आराधना की जाती है। दुर्गा सप्तशती का पाठ पढ़ा जाता है। इसके पश्चात षष्ठी को बोधन पूजा के साथ माता की स्थापना की जाती है। प्रतिदिन सुबह महिलाएँ पुष्पांजलि देती हैं। जब तक अंजलि नहीं होती तब तक निर्जल व्रत रखा जाता है।

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उसके बाद पंडाल में ही प्रसाद ग्रहण किया जाता है। षष्ठी से विजयादशमी तक अंजलि के साथ सप्तमी पूजा, संधी पूजा, कुमारी पूजन, भूरा कुम्हड़ा, केला और गन्ने की बलि और दशमी के दिन महिलाओं द्वारा दर्पण दर्शन किया जाता है। विसर्जन के समय महिलाएँ एक-दूसरे के सुहाग की कामना करते हुए सिंदूर होली खेलती हैं। ये सिर्फ बाँग्ला समाज में ही होता है कि माता के विसर्जन में महिलाएँ भी साथ में जाती हैं।

बंगाली समुदाय में मान्यता है कि नवरात्रि में माँ महिषासुर मर्दन के पश्चात अपने परिवार के संग धरती पर अर्थात् अपने मायके आती हैं। उनके परिवार में बाएँ से पहले नंबर पर गणेश भगवान, लक्ष्मीजी, बीच में देवी दुर्गा, सरस्वतीजी और कार्तिकेय जी शामिल रहते हैं। बाँग्ला पंडालों में माँ की स्थापना भी इसी क्रम में पूरे परिवार के साथ की जाती है। माता महिषासुर का मर्दन करके आती हैं, तो बाँग्ला परिवारों द्वारा उनके आगमन पर नए वस्त्र पहने जाते हैं।

बंगाल की परंपरानुसार बाँग्ला समुदाय दुर्गा देवी के स्वागत में कोई-कसर बाकी नहीं रखते। ढाँकी-ढोल बजाने वाले भी बंगाल से बुलवाए जाते हैं। पूजा के दौरान महिलाओं का उलु ध्वनि करना शुभ माना जाता है। महिलाएँ धूनूची नृत्य से माँ की आरती करती हैं। षष्ठी से दशमी तक पंडालों में दिन भर कई प्रतियोगिताएँ आयोजित की जाती हैं, जिसमें बाँग्ला परिवारों के लोग शामिल होते है

ऐसा कहा जाता है कि जब तक दुर्गोत्सव चलता है, तब तक बाँग्ला परिवारों में खाना नहीं बनता। त्योहार के इस माहौल में सभी परिवार साथ में मिलकर पूजा पंडालों में ही प्रसाद ग्रहण करते हैं। प्रतिदिन खीर, खिचड़ी, सब्जी और चटनी का भोग लगाया जाता है।

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