Select Your Language

Notifications

webdunia
webdunia
webdunia
webdunia
Advertiesment

शिक्षा का कारोबार

हमें फॉलो करें शिक्षा का कारोबार
- डॉ. हरिओम
बाजार अर्थव्यवस्था की सबसे बड़ी विशेषता यह कि वह व्यक्ति, घटना, मूल्य, संस्कार यहाँ तक कि संवेदन को भी उत्पाद में बदल देती है। ऐसे में शिक्षा पाने और देने-दिलाने का उपक्रम यदि पूँजी केंद्रित हो गया तो इसमें आश्चर्य की बात नहीं है। गुरुकुल या आश्रम पद्धति की शिक्षा का युग तो अँगरेजों के समय ही समाप्त हो गया था किंतु एक संगठित व्यवसाय के रूप में शिक्षा का विकास आधुनिक उदारवादी बाजार-अर्थव्यवस्था की देन है। उपभोक्ता वस्तुओं के क्षेत्र में देशी एवं विदेशी कंपनियों की बहुतायत और मुनाफे के लिहाज से इस क्षेत्र की संपृक्तता (सैचुरेशन) के कारण स्वास्थ्य एवं शिक्षा की ओर धंधेबाजों का ध्यान गया।

फिर देखते ही देखते प्राथमिक शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा, तकनीकी और व्यावसायिक शिक्षा
  विदेशी मूल्यों और संस्कृति के प्रति आकर्षण ने शिक्षा के क्षेत्र को भी बुरी तरह प्रभावित किया है। यह महज अँगरेजी भाषा या उस भाषा में उपलब्ध ज्ञान को प्राप्त करने की इच्छा नहीं है      
के क्षेत्र में सार्वजनिक-सरकारी संस्थानों की तुलना में निजी पूँजी आधारित संस्थानों की भरमार हो गई। व्यावसायिक और तकनीकी शिक्षा की बात तो समझ में आती है लेकिन प्राथमिक बुनियादी शिक्षा के क्षेत्र में निजी पूँजी और व्यावसायिक प्रतिष्ठानों की नियामक और निर्णायक भागीदारी चिंताजनक है। विशेषकर तब जब भारतीय संविधान में 14 वर्ष तक के सभी बच्चों को निःशुल्क शिक्षा सुनिश्चित किए जाने को राज्य का नीतिगत कर्तव्य बताया गया है।

भारत सरकार द्वारा चलाए गए सर्वशिक्षा अभियान से निश्चित तौर पर ग्रामीण क्षेत्रों में बुनियादी ढाँचे को सुदृढ़ करने में काफी सहायता मिली है। मिड-डे मील, निःशुल्क पाठ्यपुस्तक, छात्रवृत्तियों और बालिकाओं को निःशुल्क यूनीफार्म जैसी योजनाओं के कारण स्कूल चलो अभियान ने तेजी पकड़ी। प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा के लिए विद्यालय भवनों के निर्माण में भी क्रिटिकल गैप्स को काफी हद तक भरा गया है किंतु गरीबी, जागरूकता की कमी, शिक्षकों की बेहद कमी, अनुशासन एवं पर्यवेक्षण एवं प्रशिक्षण के अभाव तथा गुणवत्तापरक शिक्षा सुनिश्चित कर पाने में ज्यादातर पंचायतीराज संस्थाओं की अक्षमता और अरुचि के चलते सरकारी शिक्षा का बुनियादी ढाँचा संविधानिक दायित्व के निर्वाह में पूरी तरह समर्थ नहीं हो पा रहा है।

इसके बरक्स 1991 के बाद लागू की गई उदार अर्थनीति के कारण प्राथमिक विद्यालयों से लेकर उच्च शैक्षिक संस्थानों के लिहाज से निजी पूँजी का दबदबा काफी बढ़ा है। गरीबी रेखा से नीचे जीवनयापन करने वाली आबादी के लिए स्कूल के दरवाजे अपेक्षाकृत सुलभ अवश्य हुए हैं किंतु उसमें वास्तविक शैक्षिक चेतना का स्तर बढ़ा है, यह कहना मुश्किल है। दूसरी तरफ मध्यमवर्गीय एवं उच्च वर्गीय परिवारों को निजी पूँजी ने लगभग पूरी तरह से अपने नियंत्रण में ले लिया है।

विकास का जो ढाँचा हमने अपनाया है वह काफी हद तक आयातित है। विदेशी मूल्यों और संस्कृति के प्रति आकर्षण ने शिक्षा के क्षेत्र को भी बुरी तरह प्रभावित किया है। यह महज अँगरेजी भाषा या उस भाषा में उपलब्ध ज्ञान को प्राप्त करने की इच्छा नहीं है। यह अपने देश की एक बहुत बड़ी आबादी उसके दुखों, समस्याओं और सपनों से वैचारिक और आभासी (एपेरेंट) स्तर पर भी अपने को अलग कर लेने की कोशिश है।

पिछले दस-पंद्रह वर्षों में गाँवों, कस्बों में जिस तरह से अँगरेजी माध्यम के स्कूलों और पब्लिक स्कूलों के नाम पर विशिष्ट वर्गों के लिए शिक्षा केंद्रों की भरमार हुई है, वह आश्चर्यजनक है। अँगरेजों ने अपना राज चलाने के लिए फोर्ड विलियम कॉलेज की स्थापना कर एक पिट्ठू, पिछलग्गू बाबू वर्ग तैयार करने की कोशिश की थी। वही प्रयास आज और अधिक व्यवस्थित और व्यापक तरीके से बड़े-बड़े पूँजीपति और सेठ कर रहे हैं। निजीकरण को सार्वजनिक जीवन की समस्याओं के समाधान का मूलमंत्र मानने वालों ने शिक्षा जैसे संवेदनशील क्षेत्र में भी निजी पूँजी की भागीदारी के पक्ष में माहौल बना दिया है।

हालात यह है कि अब बेहतर शिक्षा प्रदान करने का दावा करने वाले इन संस्थानों में प्रवेश के लिए ही इतनी मारामारी है कि बच्चों के माता-पिता विद्यालय प्रबंध-तंत्र के सामने पूरी तरह से लाचार और समर्पित हैं। सरकारी शिक्षा तंत्र के विकल्पों के रूप में उभरे इन संस्थानों ने यह स्पष्ट कर दिया है कि अब वही बच्चा अच्छी शिक्षा पा सकता है जिसके माँ-बाप, गार्जियन के पास काफी पैसा है और जो अनुशासन और सदाचार के नाम पर प्रबंधन की सभी ज्यादतियाँ बर्दाश्त करने को तैयार हो।

पहले बच्चों का दाखिला पहली कक्षा में होता था लेकिन प्ले स्कूल भी खुल गए हैं।
  आए दिन परीक्षा में फेल होने अथवा कम अंक से पास होने पर विद्यार्थी को इतनी आत्मग्लानि अथवा समाज एवं परिवार का सामना करने में इतना भय रहता है कि वह आत्महत्या भी करने लगा है      
अब खेलने-खिलाने के भी बाकायदा दक्ष-खर्चीले स्कूल खुले हैं। उसके बाद प्रेप, नर्सरी, लोअर केजी, अपर केजी करने के बाद बच्चा पहली कक्षा में पहुँच पाता है। यह बाजार अर्थव्यवस्था की दूसरी सबसे बड़ी खासियत है कि वह न सिर्फ आपकी जरूरतों और सपनों के लिए भरपूर शुल्क वसूलती है बल्कि विज्ञापनों और प्रलोभनों के जरिए आपकी जरूरतों और सपनों को अपने फायदे के लिए बढ़ा देती है। प्रवेश के समय सिक्योरिटी राशि के साथ भारी-भरकम फीस जमा कराई जाती है।

यूनिफार्म, किताबों और ट्रांसपोर्ट के लिए अलग से पैसा वसूला जाता है। बीच-बीच में पिकनिक, फैशन शो, चैरिटी शो, वार्षिकोत्सव आदि के साथ लगातार उगाही चलती रहती है। एडमिशन न देने का भय दिखाकर माँ-बाप का इंटरव्यू लेने से लेकर बच्चों को ऊबाऊ और खर्चीले होमवर्क देकर बीच-बीच में धमकाया जाता है। कस्बों और महानगरों में संगठित प्रतिरोध के अभाव में ज्यादातर विद्यालय प्रबंधन बच्चों के प्रति निर्मम भी हो गए हैं। वह मानसिक और शारीरिक दोनों प्रकार के उत्पीड़न का शिकार है।

पढ़ाई और जीवन में स्पर्धा का आतंक कुछ इस हद तक विद्यार्थी के मन में बिठाया जाता है कि वह अपना सहज बचपन भूलकर मशीनी हो जाता है। आए दिन परीक्षा में फेल होने अथवा कम अंक से पास होने पर विद्यार्थी को इतनी आत्मग्लानि अथवा समाज एवं परिवार का सामना करने में इतना भय रहता है कि वह आत्महत्या भी करने लगा है। सुबह-शाम पढ़ाई, होमवर्क, डायरी, यूनीफार्म में फँसा बच्चा अपने जीवन में किस दिशा में जा सकता है, यह अनुमान लगाना बहुत आसान है।

सरकारी शिक्षा केंद्रों के समानांतर विकसित हो चले इन व्यावसायिक प्रतिष्ठानों के लिए यदि सरकार एक नियामक संस्था नहीं बनाती तो फिर आने वाले दिनों में कान्वेंट, पब्लिक स्कूलों में पढ़कर जवान होने वाला यह ‍कथित पढ़ा-लिखा तबका सिर्फ बहस करने वाले एक सुविधाभोगी-वर्ग में तब्दील होगा जिसके भीतर देश और समाज की समस्याओं की न तो कोई समझ होगी और न ही उनके समाधान की कोई चाह।
(लेखक भारतीय प्रशासनिक सेवा में हैं)

Share this Story:

Follow Webdunia Hindi