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आर्थिक आजादी का परचम

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आलोक मेहता

लालकिले पर तिरंगा झंडा फहराने के बाद भारत के प्रधानमंत्री जब 'जय हिन्द' का नारा लगाते हैं, तो पूरा राष्ट्र रोमांचित हो जाता है। काले बादलों से छाए अँधेरे की तरह आती रहने वाली राजनीतिक, आर्थिक, सामरिक मुसीबतों से निपटने की शक्ति 'जय हिन्द' के इन शब्दों से मिलती है।

गरीब हो या अमीर खुशहाली के साथ अगली सुबह का स्वागत करते हैं। किसी भी देश के इतिहास के लिए 61 वर्ष का काल बहुत लंबा नहीं कहा जा सकता। आजादी के इन 61 वर्षों में सत्ता के सिंहासन पर कोई भी व्यक्ति बैठा हो तथा कितने ही बड़े तूफानों को झेल रहा हो, भारतीय गणतंत्र के मूलभूत सिद्धांतों की दिशा नहीं बदली।

पं. जवाहरलाल नेहरू से मनमोहन सिंह तक दिल्ली के लाल किले से गूँजने वाले स्वरों में लोकतांत्रिक नाव डगमगाने की घबराहट वाला कम्पन नहीं है। निश्चित रूप से आजादी और लोकतंत्र का रास्ता कठिन है। 1948 से 2008 तक विपरीत दिशाओं वाली लहरों का सामना करना पड़ा है।

देश के अंदर बढ़ते हुए कट्टरपंथी मवाद और बाहरी ताकतों के प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष हमलों
  आर्थिक स्वराज्य पाने की लड़ाई तो अभी वर्षों चलनी है। लाल किले की मीनारों पर तिरंगा लहराते हुए हाथ किसी प्रधानमंत्री, किसी सरकार, दल या किसी क्षेत्र के हों, उनके पीछे करोड़ों भारतीयों के हाथों की शक्ति भी है      
को देखकर कई बार चीख उठती है- कहीं अब देश की नैया रसातल में तो नहीं जाने वाली है। लेकिन हर तूफान और रात के बाद भारत अधिक शक्तिशाली तथा खुशहाल दिखने लगता है। धैर्य, संयम और उदारता के गुण संविधान की किसी मोटी किताब से नहीं मिले हैं, वे भारतीय खून की खासियत हैं।

1948, 1962, 1971 और 1999 के विदेशी आक्रमणों, आतंकवादी हमलों, मंडल या मंदिर के नाम पर भड़की भयानक सामाजिक आग के बावजूद असली भारत कहीं बिखरा नहीं है। हिमालय कितना ही विशाल और मजबूत दिखाई दे, उसकी बर्फ निरंतर पिघलती है और उसकी चट्टानें तो छोटे-छोटे पहाड़ों से भी अधिक कमजोर हैं।

इसीलिए हिमालय की चट्टानों के खिसकने, भूकम्प के झटकों से बुरी तरह ढहने तथा जगह बदलने तक के खतरे रहते हैं। भारतवासियों को ऐसे ही हिमालय की रक्षा करना है। आजादी का जश्न मनाते समय हर सरकार और भारतवासी को सोचना होगा कि कारगिल की तरह हर गली-मोहल्ले, गाँव, कस्बे, शहर, महानगर, जंगल, नदी, पहाड़ और समुद्र के इर्द-गिर्द बढ़ने वाले खतरों से उन्हें ही निपटना है।

स्वतंत्रता और प्रजातंत्र की सफलता के लिए निरंतर चलते रहना आवश्यक है। देश चलाने वाली सरकार जब भी आधे रास्ते में लड़खड़ाकर गिरती है, पूरा भारत विकास की कई सीढ़ियों से नीचे पहुँच जाता है। यह क्षतिपूर्ति महीनों में नहीं, बरसों में होती है। इसलिए तिरंगा उठाने और उसे लहराते हुए देखकर खुश होने वालों को अपने पैरों के संतुलन पर बराबर ध्यान रखना होगा।

आधुनिक भारत के निर्माता पं. जवाहरलाल नेहरू ने 15 अगस्त 1947 को राष्ट्र के नाम संदेश में कहा था- 'हमारा पहला ध्येय यह होना चाहिए कि हम सब प्रकार के आंतरिक झगड़ों और हिंसा का अंत कर दें, जो हमें कलुषित करके गिराते हैं और स्वतंत्रता के पक्ष को हानि पहुँचाते हैं। ये जनता की विकराल आर्थिक समस्याओं पर विचार करने में बाधक होते हैं, जबकि उन पर तुरंत ध्यान देने की आवश्यकता है।'

छः दशक बाद दुनिया के शक्तिशाली, आधुनिक तथा कुछ पैमानों पर संपन्न कहे जाने वाले देशों की पंक्ति में खड़े रहते हुए भी अपने देश में आंतरिक झगड़ों तथा हिंसा का अंत नहीं हो पाया है। अरबपतियों की संख्या भले ही बढ़ गई है, गरीबों की संख्या में अधिक कमी नहीं आई है।

महात्मा गाँधी ने ऐसे रामराज्य-सुराज्य की कल्पना की थी, जिसमें लोग न केवल
  राजनीतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक स्वतंत्रता की पहली आवश्यकता बहु-संस्कृतिवाद को संरक्षण देने की है। भारत की स्वतंत्रता का मूलभूत आधार यही है कि लोगों को अपनी रुचि के अनुसार रहने और बढ़ने की सुविधा दी जाए। लोकतंत्र इसी सामाजिक-सांस्कृतिक परंपरा की देन है      
भौतिक सुख-सुविधाओं से संपन्न हों, बल्कि उनका जीवन सदाचार और नैतिकता की दृष्टि से भी उच्च कोटि का हो। हमारा गौरव है कि हम भारतवासी हैं। भारत की सबसे बड़ी शक्ति है- पुरानी परंपरा के ऊँचे आदर्श। हमारी परंपरा शांति और सह अस्तित्व की रही है।

एक-दूसरे की विचारधारा को बर्दाश्त करने की क्षमता हमारी ताकत बनी। राम, कृष्ण, महावीर स्वामी, गौतम बुद्ध, गुरुनानक, महर्षि अरविंद, महात्मा गाँधी और जवाहरलाल नेहरू ने सह अस्तित्व के जीवन मूल्यों के संरक्षण को सर्वोच्च प्राथमिकता देने की बात कही। हमारे लिए सांस्कृतिक और वैचारिक विविधता नई नहीं है।

अब हम एक बहु-सांस्कृतिक युग की देहरी पर हैं। विभिन्न धर्मों, संस्कृतियों और लोगों के लिए यह आवश्यक नहीं है कि वे एक-दूसरे के अनुकूल बनें। उनके लिए इतना ही पर्याप्त है कि वे एक-दूसरे की भावनाओं और उनके अस्तित्व का सम्मान करते हुए आगे बढ़ने का प्रयास करें।

राजनीतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक स्वतंत्रता की पहली आवश्यकता बहु-संस्कृतिवाद को संरक्षण देने की है। भारत की स्वतंत्रता का मूलभूत आधार यही है कि लोगों को अपनी रुचि के अनुसार रहने और बढ़ने की सुविधा दी जाए। लोकतंत्र इसी सामाजिक-सांस्कृतिक परंपरा की देन है। परंपराओं का अनुगमन करते हुए भारत को आधुनिक तथा समृद्ध बनाना हमारी सबसे बड़ी चुनौती है।

भारत को विश्व में एक महान शक्ति के रूप में स्थापित करना हम सबका सपना है। आधुनिक समय में जिस तरह आर्थिक आजादी की ज्वाला प्रत्येक भारतीय के अंतःस्थल से उभरी है, उसने स्वामी विवेकानंद की इस बात को पुष्ट किया है कि 'स्वाधीनता विकास का पहला चरण है।' यदि जनता भूखी है, तो राजनीतिक स्वतंत्रता अधूरी है।

नेहरू और इंदिरा युग के बाद सत्ताधारी अपनी पार्टियों के निष्ठावान जमीनी कार्यकर्ताओं की यह बात सुनने-समझने को तैयार नहीं होते कि आर्थिक विकास दर के आँकड़ों में भले ही बढ़ोतरी दिख रही हो, गरीबी, अशिक्षा और कुपोषण के शिकार अधिकांश लोगों को राहत नहीं मिल रही है। छत्तीसगढ़, झारखंड, उड़ीसा, आंध्र, पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में गरीबों, आदिवासियों, किसानों, मजदूरों की स्थिति बदतर होती गई है।

इसी कारण अरबों रुपयों के पूँजी निवेश के दावों के बावजूद गरीब आत्महत्या कर रहे हैं। स्वतंत्रता आंदोलन से लेकर 1980 तक केंद्र में बैठी सरकारें किसानों को जमींदारों, सूदखोरों, धन-पशुओं से लिए जाने वाले कर्जों तथा चक्रवर्ती ब्याज के दुष्चक्र से निकालने के लिए अभियान चलाती रहीं।

इंदिरा गाँधी ने तो बैंकों का राष्ट्रीयकरण भी इसी उद्देश्य से किया था। लेकिन 1991 के बाद बनी आर्थिक नीतियों ने किसानों, निम्न-मध्यमवर्गीय लोगों को कर्ज के कुएँ में कूदने के लिए प्रेरित किया। अरबपति या बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ तो दुनिया भर के कर्ज को अधिकार तथा चतुराई मानती हैं। उन्हें कर्ज न चुका पाने का कोई गम नहीं होता, न ही उनके स्वाभिमान को ठेस पहुँचती है।

लेकिन मेहनत-मजदूरी करने वालों को इज्जत ज्यादा प्यारी होती है तथा कर्ज रहने पर रात-रातभर नींद नहीं आती। आज के सत्ताधारियों को विदेशी सहयोग और मेहरबानी तरक्की का एकमात्र रास्ता लगता है। जबकि माहत्मा गाँधी कहते थे- 'किसी से मेहरबानी माँगना अपनी आजादी बेचना है।' जो अस्थायी सुरक्षा खरीदने के लिए आजादी छोड़ देते हैं, वे आजादी और सुरक्षा के योग्य नहीं होते।

आजादी का अर्थ स्वैच्छिक संयम, अनुशासन और कानून के शासन को स्वेच्छा से स्वीकारना है। आतंकवादी अथवा नक्सली हिंसा को रोकने के लिए नए-नए कानून थोपने की माँग करने वाले यह भूल जाते हैं कि सामाजिक और आर्थिक खुशहाली किसी कानून से नहीं आ सकती। कानून तो संविधान-निर्माताओं ने बहुत बनाए और 61 वर्षों में कई संशोधन-परिवर्तन हुए।

फिर भी समस्याएँ सुलझने के बजाय उलझती रहीं। जब शोषण की अति होती है,
  आर्थिक स्वराज्य पाने की लड़ाई तो अभी वर्षों चलनी है। लाल किले की मीनारों पर तिरंगा लहराते हुए हाथ किसी प्रधानमंत्री, किसी सरकार, दल या किसी क्षेत्र के हों, उनके पीछे करोड़ों भारतीयों के हाथों की शक्ति भी है      
समाज में हिंसा बढ़ने लगती है। पं. नेहरू ने वर्षों पहले चेतावनी दे दी थी- 'अनियंत्रित सत्ता और शक्ति की भूख उसके उपयोग के साथ बढ़ती जाती है।' मनुष्य की शांति की परख समाज में ही हो सकती है, हिमालय की चोटी पर नहीं।

इसलिए स्वतंत्रता की रक्षा और समाज में शांति-सद्भावना के लिए सही समझ तथा सावधानी जरूरी है। कर्मकांड और वर्णवादी पाखंड से जब भारतीय समाज पतित हुआ, तब जैन धर्म ने मनुष्य के लिए नहीं, हर प्राणी के लिए अहिंसा, अस्तेय, सदाचार, अपरिग्रह और संयम का संदेश दिया।

गौतम बुद्ध ने ईश्वर के नाम पर संचालित धर्म सत्ता को राज सत्ता से अलग किया। उस दौर में धर्म आधारित नियम-कानून ही राजा के राजकाज के प्रमुख आधार थे। गौतम बुद्ध ने जाति, वर्ण, धर्म पर आश्रित अधिकारों को तोड़कर समतामूलक नागरिक संहिता को मूर्त रूप दिया। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में भी जन्मगत और जातिगत श्रेष्ठता की जगह व्यक्ति की योग्यता सर्वोपरि मानी गई।

इस्लामी परंपरा में व्यक्ति की स्वतंत्रता को उसकी रजामंदी के अधीन माना गया। ईसा मसीह ने भी व्यक्ति स्वातंत्र्य और करुणा के अधीन न्याय का सूत्र दिया, तो गुरुनानक ने जातिवाद की ऊँच-नीच को अस्वीकार कर सत्तागत राजनीतिक धर्मांधता को मानव विरोधी निरूपित किया।

विडंबना यह है कि मर्यादा पुरुषोत्तम राम, शिवशंकर, गौतम बुद्ध, महावीर स्वामी, गुरुनानक, विवेकानंद या महात्मा गाँधी की प्रतिमाएँ लगाकर उनकी सूक्तियों का पाठ करने वाले लोग उनके बताए आदर्शों और जीवन-मूल्यों की हत्या कर रहे हैं। यदि कोई ठीक से हिसाब लगाए, तो जाति, धर्म, नस्ल, भाषा और क्षेत्र के नाम पर सत्ता की राजनीति करने वालों की संख्या 1947 से भी अधिक हो गई है।

स्वतंत्रता तथा लोकतांत्रिक अधिकारों के दुरुपयोग ने लोकतंत्र की व्यवस्था को बदबूदार बना दिया है। भ्रष्ट-तंत्र दीमक की तरह लोकतंत्र की जड़ों को खोखला कर रहा है। तथाकथित गाँधी-नेहरूवादी, मार्क्सवादी, समाजवादी या हिन्दूवादी निहित स्वार्थों तक सीमित हो गए हैं। कोई निरंकुश शासक या हर तीन महीने में ब्लैकमेल होने वाला अस्थिर शासन भारत को सर्वनाश की ओर ले जा सकता है।

भारत की स्वतंत्रता के लिए चंद परिवार, गुट, दल, जाति, समुदाय इत्यादि को सारा श्रेय देने की गलतफहमी किसी को नहीं पालनी चाहिए। इस आजादी के लिए अज्ञात लाखों परिवारों ने बलिदान दिए हैं। वर्तमान सत्ता व्यवस्था पर कब्जा करने वाले 10 प्रतिशत लोग बेईमान तथा सत्ता के नशे में अंधे हो सकते हैं, लेकिन कश्मीर से कन्याकुमारी तक नब्बे प्रतिशत भारतीय जनता भोली-भाली ईमानदार और सच्ची राष्ट्रभक्त है।

स्वतंत्रता और लोकतंत्र की असली निगरानी तो उन्हीं लोगों को करनी है। स्वतंत्रता-दिवस के आसपास बुजुर्गों से कहीं-कहीं यह सवाल सुनने को मिलता है कि आखिर इस आजादी से क्या मिला? हमारे पूर्वजों ने क्या इसी हालत के लिए खून बहाया था? कहाँ है देशभक्ति, ईमानदारी, त्याग और सेवा की भावना?

नजरें कमजोर होने पर सबकुछ धुँधला और अंधकारमय दिखने लगता है इसलिए सारी कमियों, गड़बड़ियों और समस्याओं के बावजूद हमें यह समझना होगा कि आजादी की सबसे बड़ी उपलब्धि क्या यह नहीं है कि हम बिगड़ते हालात पर खुलकर लिख-बोल सकते हैं? पूर्वजों ने जो खून बहाया, वह निरर्थक नहीं गया, क्योंकि दुनिया के बड़े से बड़े देश स्वतंत्र और शक्तिशाली राष्ट्र के नाते अब हमारे साथ बराबरी का रिश्ता रखना चाहते हैं।

देश की नई पीढ़ी के अधिकांश लोगों में योग्यता, ईमानदारी और सेवा भावना कम नहीं है। विश्व की कम्प्यूटर क्रांति में भारतीय युवाओं का सबसे बड़ा योगदान है। यह न भूलें कि ईमानदारी से काम नहीं करते, तो हमारे इंजीनियर और डॉक्टर अमेरिका, योरप या चीन जैसे देशों में नहीं टिक सकते थे। ब्रिटेन या अमेरिका जैसे संपन्न विकसित देशों की स्वास्थ्य सेवाएँ भारतीयों पर निर्भर हैं।

इसी तरह भारत के सुदूर क्षेत्रों, लद्दाख की ऊँची चोटियों से लेकर जैसलमेर के रेगिस्तानी इलाकों अथवा पूर्वोत्तर क्षेत्र में काम करने वाले लाखों युवाओं की सेवा-भावना में कहीं कोई कमी नहीं है। उनकी कर्तव्यनिष्ठा लाल किले से संसद-भवन तक के गलियारों से उठ रहे काले धुएँ में दिखाई नहीं देती।

आर्थिक स्वराज्य पाने की लड़ाई तो अभी वर्षों चलनी है। लाल किले की मीनारों पर तिरंगा लहराते हुए हाथ किसी प्रधानमंत्री, किसी सरकार, दल या किसी क्षेत्र के हों, उनके पीछे करोड़ों भारतीयों के हाथों की शक्ति भी है। शान से तिरंगा लहराते हुए सबको संकल्प यही लेना होगा कि बड़े से बड़े तूफान में इस तिरंगे और स्वाधीनता पर आँच नहीं आने देंगे तथा आर्थिक-स्वतंत्रता के अभियान को जारी रखेंगे। स्वतंत्रता दिवस पर नईदुनिया के लाखों पाठकों को बधाई-शुभकामनाएँ।
(लेखक नईदुनिया के प्रधान सम्पादक हैं)

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