Select Your Language

Notifications

webdunia
webdunia
webdunia
webdunia

कितना सौन्दर्य छुपा है प्रकृति में...

पर्यावरण दिवस विशेष

हमें फॉलो करें कितना सौन्दर्य छुपा है प्रकृति में...

स्मृति आदित्य

, रविवार, 5 जून 2011 (08:58 IST)
छोटा-सा तुलसी बिरवा। नन्ही-सी हरी कच एक नाजुक पत्ती। जब रोपा तो एक साथ कई स्वर उठे 'नहीं पनपेगा', 'जड़ नहीं पकड़ेगा'। मन का प्रबल विश्वास 'चेतेगा, पनपेगा, जरूर पनपेगा।' आत्मा की हर भावुक लहर से उसे सिंचित किया। संपूर्ण एकाग्रता से पोषित किया। बिरवे की आत्मा तक पहुंचने की कोमल कोशिश की। कब मिट्‍टी पलटना है, तपन भी जरूरी है। गोबर के उपले की खाद हाथों से बनाई.... और जिस दिन नर्म मुलायम पत्ती ने शरमाकर हल्का-सा सिर ऊंचा किया- आत्मा के सुप्त तारों में एक साथ कई रागिनियां बज उठीं रोम-रोम छनन...छुम थिरक उठा। यह है सृजन सुख।

एक ऐसा विलक्षण गुलाबी सुख जिसे कभी शब्दश: अभिव्यक्त नहीं किया जा सकता। एक बेहद खूबसूरत-सा भाव जिसे सिर्फ अंतर की गहराइयों में अनुभूत किया जा सकता है। आज तुलसी हुलसकर मुस्कुरा रही है और एक नहीं बल्कि चार-चार गमलों में।

इससे पहले मैंने कभी ऐसा सुकोमल सुख अनुभूत नहीं किया था। बचपन से मां को प्रकृति से प्यार करते पाया। हम भाई-बहन के अतिरिक्त मां के चरणों के चार 'बच्चे' और हैं- मनी प्लांट, तुलसी, बिल्व पत्र और हारसिंगार।

इन चारों 'बच्चों' से जुड़ी यूं तो मां के पास कई कहानियां हैं, लेकिन जो मैंने प्रत्यक्ष अनुभू‍त किया। वह निश्चित रूप से उल्लेखनीय है। मां ने अपने लड्‍डूगोपाल के लिए हारसिंगार लगाया। दिन में उससे बड़ा सुंदर संप्रेषित करती। सुखद आश्चर्य कि केसरिया-बादामी संयोजन के साथ पहली बार हारसिंगार मुस्कुराया जन्माष्टमी के दिन। वह जन्माष्टमी आज भी मां की स्मृति मंजूषा में वैसी ही रखी है।

ऐसे ही भोलेनाथ शिवजी के लिए बिल्व पत्र लगाने के वर्षों प्रयास चले। हर बार कोई न कोई रुकावट आड़े आ जाती है। पिछले वर्ष शिवरात्रि की सुहानी सुबह उनकी साधना सफल रही। तीन गुलाबी ललछौंह स्निग्ध पत्तियां कुछ गुथी हुई, कुछ खुलती ऐसी प्रतीत हुई मानो किसी कोमलांगी की नृत्यभंगिमा हो या अभिवादन को उठे किसी षोडसी के हाथ।

एक बार परिवार की अनु‍पस्थिति में किसी ने म‍नी प्लांट चुराने के इरादे से काट दी। मां लौटीं और सदमे में पंद्रह दिन बीमार रहीं। अनुभूति के स्तर पर वह उच्चावस्था में प्राप्त नहीं कर सकी थी कि किसी लता के कट जाने से व्यथित हो पाती। किंतु आज मेरी तुलसी का एक पत्ता भी कुम्हलाता है तो मन जाने कैसा-कैसा हो जाता है।

तुलसी पनपने के उपरांत मेरे समक्ष सृजन के कितने आयाम खुले। मां से बढ़कर सृजनकर्ता इस पृथ्वी पर कोई नहीं। इसलिए कहा जाता है कि मां नहीं बने तो मां को नहीं समझ सकते। सृजन किया नहीं तो सृजन की महत्ता से कैसे अवगत हो सकते हैं?

माता-पिता के लिए उनका सृजन अनमोल होता है। पल-पल उनका मन, मस्तिष्क और आंखें उस पर लगी होती हैं। मन उसे स्नेहापोषित करता है। उसकी सुरक्षा और सफलता की कामना में लगा रहता है। मस्तिष्क उसके व्यक्तित्व, परिवेश, संगत और प्रवृत्तियों का मूल्यांकन करता है।

आंखें कहती हैं कि एक क्षण भी ओझल न हो। नीड़ के पंछी मजबूत होते ही उड़ने लगते हैं आबोदाना ढूंढने के लिए। सृजन की नन्ही कोपलें जब धीरे-धीरे पल्लवित होती हैं। उसकी उपलब्धियों और उत्कर्ष की एक-एक पंखुरी खिलती है तब शिराओं में उल्लास की दिव्य तरंग उठती है।

एक विशिष्ट महक आत्मा को खुशनुमा बनाए रखती है। जब यही सृजन जैसा चाहा वैसा न बनकर भटकाव की दिशा में बढ़ता है तब सृजनकर्ता के कष्टों का पारावार नहीं रहता। वस्तुत: सृजन कोई भी हो नन्हा बिरवा, कोमल शिशु, कोई कलाकृति, साहित्यिक रचना या कोई शिल्प, पूर्णता के पायदान पर चरम सुख की अनुभूति कराता है। एक अनूठा संतोष, प्रखर विश्वास और‍ निपुणता विकसित होती है।

यह हमारी रचना है। हमारे शुभ प्रयासों का प्रतिफल है। ईश्वर ने इस पवित्र सुख से हम सबको नवाजा है। हर व्यक्ति जीवन में किसी न किसी सृजन प्रक्रिया से अवश्य गुजरता है और निर्माण के पश्चात् अलौकिक सुख-संतोष में भर उठता है। सृजन-सुख परिभाषित नहीं किया जा सकता, यदि संसार में इस अनोखे सुख का मीठा नशा नहीं होता तो आदिम युग तकनीकी युग तक का सफर इंसान तय नहीं कर पाता।

सृजन मन को शक्ति देता है। कुछ तो है जो हम कर सकते हैं, चाहे किसी की पसंद न बन सके मन का चरम परितोष क्या कम उपलब्धि है? साहित्यकार, मूर्तिकार, चित्रकार, काष्ठकार जैस कितने 'कार' हैं जो इस सुख को बार-बार पी लेना चाहते हैं, पीते हैं और अतृप्त बने रहते हैं। हर बार कुछ नया, कुछ अलग करने की त्वरा उन्हें स्वप्न और संकल्प, कल्पना और कोशिश एवं ऊर्जा और उमंग से सराबोर रखती है।

हम सभी स्वयं किसी का सृजन हैं जिस माटी ने हमको सिरजा है उसका कर्ज है हम पर। वह हमें प्रेरणा के चमकते दीप बने देखना चाहती है, प्रगल्भ और प्रगतिशील एवं सफल और सुवासित, पर्यावरण दिवस की हर सुबह हम एक नाजुक ‍पौधे को रोप कर सृजन की नैसर्गिक परंपरा में सहभागी बनें, यही कामना है।

Share this Story:

Follow Webdunia Hindi