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क्या हम वंचित हो जाएँगे उस दहाड़ से?

हमें फॉलो करें क्या हम वंचित हो जाएँगे उस दहाड़ से?
-रवींद्र व्यास
माय वेबदुनिया के कुछ पोर्टल और ब्लॉग पर कुछ अच्छी और रोचक सामग्री पढ़ने को मिली।

संदीप सिसौदिया ने अपने पोर्टल संदीप के पन्ने पर एक बार फिर हमारा ध्यान इस मार्मिक मुद्दे की ओर दिलाया है कि हम अब भी अपने पर्यावरण और जीव-जंतुओं के प्रति अब भी संवेदनहीन बने हुए हैं और प्रशासन, सरकार और शिकारियों के कारण हमारे खूबसूरत वन्य प्राणी लगातार कम होते जा रहे हैं और यही स्थिति रही तो एक दिन वह भी आएगा जब ये वन्य जीव सिर्फ फिल्मों, डाक्यूमेंट्री फिल्मों और किताबों में ही रह जाएँगे और हमारा जीवन एक दहाड़, एक चिंघाड़ से हमेशा के लिए वंचित रह जाएगा।

इसमें कोई दो राय नहीं कि आज लोलुपता और लाभ की वासना इस हद तक पहुँच चुकी है कि है कि जानवरों की खालों से लेकर उसकी हड्डियों और यहाँ तक कि उसके रक्त का व्यापार अंतरराष्ट्रीय स्तर पर फैल चुका है। यह आँख खोल देने वाला तथ्य है कि आज किसी खास तरह के साँप या अन्य जानवर का रक्त इसलिए पीया जाता है कि उससे यौन ताकत बढ़ती है। डिस्कवरी चैनल इस तरह के कुछ विचलित कर देने वाले प्रोग्राम प्रसारित कर चुका है।

जाहिर है यह हमारे लगातार आधुनिक और सभ्य होते जाते समाज का वह क्रूर और हिंसक पहलू जो मनुष्यता पर ही सवाल खड़े करता है। जंगलों में आदिवासी तो अपनी भूख मिटाने के लिए छोटे-मोटे जानवरों का कामपूरता आखेट करता है, लेकिन व्यावसायिक उपयोग के लिए जानवरों का कत्ल करना क्या दर्शाता है?

यहाँ यह बताने की भी जरूरत नहीं कि आज अरबों रुपयों की फैशन और कास्मेटिक इंडस्ट्री में अपने परिधानों और सौंदर्य प्रसाधनों के लिए वन्य प्राणियों का दिल दहला देने वाला इस्तेमाल किया जा रहा है। फर कैप के लिए जानवरों की खालें और लिपस्टिक के लिए उनका खून उपयोग में लाया जा रहा है। इसे क्या कहेंगे, नॉलेज-एज या स्टोन एज?
बड़े पैमाने पर जंगली जानवरों के शिकार लिए एक तरफ जहाँ प्रशासन, सरकार और लालची व्यापारी दोषी हैं, तो दूसरी तरफ विवेकहीन और अनियोजित विकास की वह अवधारणा जिसके कारण आज जंगलों की बेतहाशा कटाई ने जानवरों को उनके पर्यावरण से बेदखल करने की साजिश की है।

हो सकता है एक वह समय आए जब हम उस जंगली पीली धारी वाली दहशत से हमेशा के लिए वंचित रह जाएँ जो हमारे जीवन को प्रतिकूल स्थितियों में दहाड़ का साहस और रोमांच देती है।

क्या ये युवा पलायन की अभिव्यक्तियाँ हैं?
एक हैं दीपक कुमार गुप्ता। इन्होंने माय वेबदुनिया पर अपने ब्लॉग में जगजीतसिंह की गाई मशहूर गजल की पैरोडी दिलचस्प अंदाज में प्रस्तुत की है।

एक बानगी देखिए-
ये डिग्री भी ले लो, ये नौकरी भी ले लो
भले छीन लो मुझसे यूएस का वीजा
मगर मुझको लौटा दो कॉलेज की कैंटीन
वो कम चाय का पानी, वो तीखा समोसा
कॉलेज की कैंटीन में हम सब थे राजा।

और दूसरी बानगी गुरुदत्त की मशहूर फिल्म प्यासा के गीत पर बनाई गई है और दीपक ने इसे 'मेरा पन्ना' से साभार ली है। इसकी भी एक बानगी देखिए-

ये डाक्यूमेंट ये मीटिंग, ये फीचर्स की दुनिया
ये इनसान के दुश्मन कर्सर की दुनिया
ये डैड लाइन के भूखे मैनेजमेंट की दुनिया
ये प्रॉडक्ट अगर बन भी जाए तो क्या है?

पहली नजर में तो ये दोनों पैरोडी मजा देती है, लेकिन ध्यान से पढ़ने पर यह अपने कुछ छिपे अर्थ को खोलने की भी कोशिश करती है। कई बार होता है कि हम हास्य को बहुत हल्के अंदाज में लेते हैं और उसमें छिपे गंभीर अर्थों को पहचानने में चूक कर जाते हैं। मुझे लगता है यह एक गजल की पैरोडी भर नहीं है। इसमें एक युवा की तड़प भी है और दूसरी तरफ कोलतार की तरह जलते-धधकते यथार्थ की आँच भी।

आज का युवा करियर कॉन्शस है और वह अपने जीवन का एक बड़ा और खूबसूरत हिस्सा करियर बनाने-सँवारने में लगा देता है और जब वह एक मुकाम हासिल कर लेता है तो उस पर टिके रहने के लिए वह सब-कुछ भूलकर लगातार हाँफते-दौड़ते काम, काम और काम ही करता रहता है।

जाहिर है उसके सामने कई चुनौतियाँ होती हैं, बड़ी जिम्मेदारियाँ होती हैं और कई बार हायर मैनेजमेंट की बढ़ती अपेक्षाएँ भी होती हैं। इसे पूरा करने में वह कभी कामयाब होता है तो कभी असफल भी हो जाता है। असफल होने पर वह अपने वर्तमान यथार्थ से भागने की कोशिश करता है। और फिर वह कई बार एक पलायनवादी रास्ता भी अख्तियार कर लेता है। यही रास्ता उसे अतीत में देखने का मौका देता हैं, जहाँ उसके धड़कते-फड़कते दिन खिली धूप में किसी रंगीन और खूबसूरत फूल की तरह खिले रहते हैं।

इन्हीं दिनों को याद करते हुए, थोड़ी देर के लिए ही सही अपने जलते-धधकते वर्तमान यथार्थ से निजात पाता है। पैरोड़ी को क्या इस अर्थ में नहीं देखा जा सकता कि क्या ये अपने कठोर यथार्थ से पलायन की ही अभिव्यक्ति नहीं है?

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