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खुद को जनता का पैरोकार न कहे इलेक्ट्रानिक मीडिया

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- महेन्द्र तिवारी

इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के बारे में यह आम धारणा बिलकुल सही जान पड़ती है कि वह अभी शैशवावस्था में है। व्यावसायिकता और लोकप्रियता की खातिर किसी भी हद तक जाने को तत्पर नजर आने वाले न्यूज चैनलों पर आए दिन टूटती आचरण की वर्जनाएँ उन पर निगेहबानी की दरकार को पुरजोर तरीके से सामने लाती हैं।

  एक पल को आतंकवाद और सांसद रिश्वत कांड जैसे मुद्दों को प्रमुखता से उठाने के लिए मीडिया की पीठ थपथपाने का मन करता है तो दूसरे ही क्षण ये चैनल अपनी गैरजिम्मेदाराना और बचकानी हरकतों से आलोचना करने पर मजबूर कर देते हैं       
नैतिकता और मर्यादा को दरकिनार रखकर काम करने की न्यूज चैनलों की इसी प्रवृत्ति के कारण वे गाहे-बगाहे किसी न किसी रूप में अपनी अच्छाई से ज्यादा आलोचना के लिए चर्चा में आ जाते हैं। एक पल को आतंकवाद और सांसद रिश्वत कांड जैसे मुद्दों को प्रमुखता से उठाने के लिए मीडिया की पीठ थपथपाने का मन करता है तो दूसरे ही क्षण ये चैनल अपनी गैरजिम्मेदाराना और बचकानी हरकतों से आलोचना करने पर मजबूर कर देते हैं।

वैसे यह किसी एक की बात नहीं है, छोटे परदे पर आने वाले हर चैनल का चरित्र ऐसा ही है। नेताओं की तरह ये भी एक ही थैली के चट्टे- बट्टे हैं। फर्क सिर्फ इतना है कि कोई ज्यादा है तो कोई थोड़ा कम।

चौबीस घंटे का नाटक क्यों : आगे रहने की होड़ और ज्यादा से ज्यादा विज्ञापन हथियाने के लालच में चैनलों ने खुद को 'राउंड द क्लॉक' तो बना लिया, लेकिन इसमें गुणवत्ता गौण हो गई। शनिवार और रविवार का प्रसारण देखने पर इसे बखूबी समझा जा सकता है।

  ये दो दिन या तो रियलिटी-शो वालों के नाम रहते हैं या फिल्म इंडस्ट्री के बिकाऊ चेहरों के। यह भी अच्छा ही है, क्योंकि खबरों की कमी से जूझते चैनलों को मसाला मिल जाता है, वहीं मनोरंजन की खाने वालों की मुफ्त में पब्लिसिटी हो जाती है      
ये दो दिन या तो रियलिटी-शो वालों के नाम रहते हैं या फिल्म इंडस्ट्री के बिकाऊ चेहरों के। यह भी अच्छा ही है, क्योंकि खबरों की कमी से जूझते चैनलों को मसाला मिल जाता है, वहीं मनोरंजन की खाने वालों की मुफ्त में पब्लिसिटी हो जाती है।

इस सबके बीच अगर कोई ठगा जाता है तो बेचारा दर्शक, जिसे इच्छा-अनिच्छा यही घिसी-पिटी और बकवास सामग्री चुपचाप देखना पड़ती है। कुछ चैनल हैं, जो इस वक्त में अच्छे कार्यक्रम भी दिखाते हैं, लेकिन उनकी तादाद नगण्य है।

ये कैसी पत्रकारिता : समाचारों के चयन को लेकर न्यूज चैनलों का रवैया भी कभी भी गले नहीं उतरता। जिस वक्त दिल्ली में लालूप्रसाद यादव क्षेत्रीयता के खिलाफ कोई प्रेस कॉन्फ्रेंस कर रहे होते हैं, चैनलों का कैमरा राज ठाकरे की जिंदगी में झाँक रहा होता है।

आगे पाठ-पीछे सपाट : यह जुमला केवल स्कूली जीवन में ही प्रासंगिक नहीं है, मीडिया के लिए भी यह कहावत सटीक बैठती है। ज्यादातर मामलों में मीडिया पीछे मुड़कर नहीं देखता कि उसमें क्या प्रगति हुई। राहुल राज की मौत का मामला हो या उत्तरप्रदेश के युवकों को मनसे के कार्यकर्ताओं द्वारा मारने का, मीडिया ने कभी इनकी तह तक जाने की कोशिश नहीं की।

कहाँ है पैनी नजर : राजा चौधरी और राखी सावंत जैसे लोगों की मामूली बयानबाजी या हरकत भी सुर्खियों में छा जाती है, लेकिन बांग्लादेशियों को भारतीय नागरिकता देने और सिमी को सांस्कृतिक संगठन बताने वाले नेताओं के खिलाफ न्यूज चैनलों की जुबाँ नहीं खुलती।

   शाहरुख और आमिर में श्रेष्ठता की जंग तो उसकी प्राथमिकता सूची में है, लेकिन कर्ज के कारण फाँसी लगाने वाले सैकड़ों किसानों का दर्द और सरकार से इस मुद्दे पर जवाब तलब की फुरसत उसके पास नहीं है      
शाहरुख और आमिर में श्रेष्ठता की जंग तो उसकी प्राथमिकता सूची में है, लेकिन कर्ज के कारण विदर्भ में फाँसी लगाने वाले सैकड़ों किसानों का दर्द और सरकार से इस मुद्दे पर जवाब तलब की फुरसत उसके पास नहीं है।

भाषा के नाम पर देश को बाँटने वाले राज ठाकरे की बाइट मराठी में लेने के लिए भी सभी एक पैर पर खड़े रहते हैं, लेकिन कश्मीरी हिंदुओं पर सालों से हो रहे अत्याचार और घाटी से लगातार जारी उनके पलायन की तरफ देश का ध्यान खींचने वाला जमीर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में नहीं है।

सलमान खान की शादी में हो रही देरी से मीडिया परेशान हो जाता है, लेकिन देश की अस्मिता संसद पर हमले के आरोपी अफजल को फाँसी देने में ढुलमुल रवैया अपनाने वाली सरकार पर दबाव बनाने में उसकी दिलचस्पी नहीं है।

आखिर मीडिया का यही असली चरित्र है तो कम से कम इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को खुद को जनता का पैरोकार कहलाने का कोई हक नहीं है। बेहतर होगा न्यूज चैनल भी अपने आप को शुद्ध विदूषक के रूप में रजिस्टर कराएँ।

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