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जापान आए हैं तो मातृभाषा बोलिए या जापानी!

अतिथि की कलम से...

हमें फॉलो करें जापान आए हैं तो मातृभाषा बोलिए या जापानी!
-बालेन्दु दाधी
दिसंबर 2008 के मध्य में टोक्यो यूनिवर्सिटी ऑफ फॉरेन स्टडीज के आमंत्रण पर जापान की यात्रा पर रवाना होने से पहले किताबों और
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पत्र-पत्रिकाओं में पढ़े वहाँ के कुछ प्रतीक मेरे मन में थे। जैसे कि वहाँ के बौद्ध मठ-मंदिर, जापानी राजवंश, बीते जमाने के समुराई योद्धा, नए जमाने के सूमो पहलवान, महिलाओं का परिधान किमोनो, अनूठे हाथ-पंखे, जापानी गुड़ियाएँ, बहुचर्चित गीशा, माउंट फूजी, नेताजी सुभाषचंद्र बोस का जापान प्रवास, एक नन्हा-सा देश होकर भी विश्व की नंबर दो आर्थिक महाशक्ति होने का चमत्कार, हिरोशिमा और नागासाकी की दुखद यादें आदि।

लेकिन, मैंने ऐसा कभी नहीं सोचा था कि हमारी हिंदी भाषा से अपने संबंधों को लेकर भी जापान किसी किस्म का गौरव महसूस करता होगा। जापान में हिंदी के अध्यापन और प्रसार में जुटे विद्वान प्रोफेसर सुरेश ऋतुपर्ण ने जब बताया कि उनकी टोक्यो यूनिवर्सिटी ऑफ फॉरेन स्टडीज में हिंदी के अध्यापन के सौ साल पूरे हो गए हैं तो आधुनिक भारत और जापान के संबंधों की गहराई का अहसास हुआ।

जापान विश्वविद्यालय में भारतीय अध्ययन की शुरुआत तो 1879 में ही हो गई थी, यानी कोई 130 साल पहले, जब भारत ब्रिटिश राज के अधीन हुआ करता था। यह 1868 में जापान के स्व-निर्वासन से बाहर आने के बाद की बात है, यानी मेईजी पुनर्स्थापन (सम्राट मेईजी के रेस्टोरेशन) के बाद की।

अपने एक सप्ताह के जापान प्रवास के दौरान अनेक बार महसूस होता रहा कि भारत, भारतीयता और भारतभाषा से जापानियों का संबंध महज उत्सुकता तक सीमित नहीं है। कहीं वह भगवान बुद्ध के जन्मस्थान के प्रति गहरी श्रद्धा के रूप में अभिव्यक्त हो रहा है तो कहीं हमारी आर्थिक प्रगति तथा तकनीकी उपलब्धियों की प्रशंसा भरी स्वीकारोक्ति के रूप में। मैंने अनेक अवसरों पर पाया कि भारत के प्रति जापानियों के मन में स्वाभाविक-सा लगाव या 'सॉफ्ट कॉर्नर' जरूर है।

सब सूना-सूना : ग्यारह दिसंबर 2008 की सुबह-सुबह हम एअर इंडिया के विमान से जापान की राजधानी टोक्यो पहुँचे पहुँचे तो देखा कि नरीता हवाई अड्डा तो एकदम सूना पड़ा है। न यात्रियों की भीड़, न सुरक्षा अधिकारियों की पंक्तियाँ और न बदहवासी की हालत में इधर-उधर भटकते हवाई अड्डा अधिकारी। जिज्ञासा हुई कि सब लोग आखिर कहाँ चले गए और क्यों? बाद में पता चला कि यह शांत सूनापन उस स्वतःस्फूर्त अनुशासन का हिस्सा है, जो दुनिया में सर्वाधिक घनी आबादी वाले टोक्यो शहर (वहाँ तीन करोड़ से अधिक लोग रहते हैं) के लोगों ने अपना लिया है।

दिल्ली की तुलना में लगभग ढाई गुना आबादी वाला शहर इतना शांत और सूना हो सकता है, यह मेरी कल्पना से बाहर था। लेकिन यही सच था। टोक्यो के बाजारों में, सड़कों पर, पार्कों में दिन के समय इक्का-दुक्का लोग ही दिखाई देते हैं। दिन में अगर वे दिखेंगे तो लोकल ट्रेन या ट्राम में और शाम को नजर आएँगे तो सुपरमार्केट में, रेस्तराओं में, मनोरंजन के स्थलों पर। दिन में सबके सब अपने दफ्तरों में या घरों में होंगे।

दुनिया की सबसे बड़ी और प्रसिद्ध ऑटोमोबाइल कंपनियाँ जापानी हैं, लेकिन सड़कों पर ट्रैफिक जाम की कोई समस्या नहीं। सबकी सब सड़कें खाली। यह चमत्कार कैसे हुआ? जापानियों ने निजी वाहनों को हतोत्साहित करते हुए सार्वजनिक यातायात को बढ़ावा देकर यह चमत्कार कर दिखाया। दिल्ली में घर से दफ्तर तक महज चार किलोमीटर की दूरी में एकाधिक स्थानों पर ट्रैफिक जाम से दो-चार होने वाले मुझ जैसे व्यक्ति के लिए तो यह सपना देखने जैसा था। मैं अनेक बार सोचता रहा कि क्या हम इस अनुशासन, स्वच्छंदता से विचरण करने की आजादी और समस्याहीनता को अपने यहाँ आयात नहीं कर सकते?

सिर्फ यही क्यों, हमारे आयात करने के लिए तो और भी बहुत कुछ है जापान में। उनका शालीन व्यवहार, दूसरों की निजता का सम्मान, किसी भी कार्य को बेहद लगन और मेहनत के साथ पूर्णता तक ले जाने की प्रवृत्ति, अपराधों का लगभग अभाव, अपने देश, संस्कृति और भाषा के प्रति गहरा सम्मान आदि आदि। जापान में अंग्रेजी की स्थिति शायद वैसी ही है जैसी हमारे यहाँ पुर्तगाली या कोरियाई भाषा की होगी। एक जापानी व्यक्ति किसी अन्य जापानी से अंग्रेजी में वार्तालाप करने की सोच भी नहीं सकता।

जापानी ही क्यों, वे तो किसी विदेशी से भी अंग्रेजी में बात नहीं करते। अपनी भाषा के प्रति गौरव का भाव रखने वाला कोई व्यक्ति भला किसी विदेशी भाषा में क्यों व्यवहार करना चाहेगा? आपको जापान के साथ व्यापार करना है, वहाँ व्यवसाय स्थापित करना है, नौकरी करनी है या घूमने जाना है तो जापानी सीखिए। जापानी भाषा के प्रति उनका यह आत्मविश्वास भरा गौरव भाव और हिंदी के प्रति हम बहुत सारे भारतीयों की हीनभावना दो विपरीत ध्रुवों के समान प्रतीत होते हैं।

अंग्रेजी तभी जब अपरिहार्य हो : प्रख्यात गीतकार कुँवर बेचैन और मैं जब टोक्यो से दिल्ली लौटने के लिए बस का इंतजार कर रहे थे तो
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मैंने वहाँ पंक्तिबद्ध खड़े पच्चीस-तीस यात्रियों से पूछा कि क्या आपमें से कोई अंग्रेजी जानता है, यदि हाँ तो कृपया बताएँ कि क्या नरीता हवाई अड्डे के लिए बस यहीं से मिलती है? जवाब आना तो दूर कोई मेरे सवाल को समझा तक नहीं।

वह अलग बात है कि थोड़ी देर बाद वहाँ टिकट बाँटने वाले व्यक्ति ने मुझसे अंग्रेजी में सवाल किया कि क्या आपके पास रिजर्वेशन है? शायद उसे लगा होगा कि मैं थोड़ी बहुत जापानी भाषा जानता हूँ, लेकिन अंग्रेजी में बोलना पसंद कर रहा हूँ। कुछ देर की प्रतीक्षा के बाद उसे अहसास हो गया कि मैं जापानी बिलकुल नहीं जानता तो उसने अंग्रेजी में एक-दो वाक्य बोलना जरूरी समझा। इसके बरक्स जरा सोचिए कि हम क्या करते हैं?

कुछ महीने पहले जब मैं अमेरिका की एक यात्रा से लौटा तो दिल्ली के ही एक सज्जन एअर इंडिया के विमान में मेरे पास बैठे थे। विमान परिचारिका ने उन्हें नवभारत टाइम्स लाकर दे दिया तो उन्होंने नाराजगी के स्वर में कहा- प्लीज, गिव मी टाइम्स ऑफ इंडिया। आई कैन नॉट मैनेज विद हिंदी लैंग्वेज। मुझे बुरा लगा और मैं बोल पड़ा कि इन्हें टाइम्स दे दीजिए, नवभारत मेरे हवाले कीजिए क्योंकि आई कैन वेरी वेल मैनेज विद हिंदी। उन सज्जन ने अंग्रेजी अखबार लेते हुए मुझे तिरस्कार और दया मिश्रित दृष्टि से देखा।

अब यह अलग बात है कि दिल्ली के इंदिरा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे पर उतरने के बाद वही सज्जन टैक्सी वालों से खालिस दिल्ली वाली हिंदी में मोलभाव करने में लगे हुए थे। मैं उन्हें टोके बिना नहीं रह सका कि जनाब थोड़ी देर पहले तक तो यू वर अनेबल टू मैनेज विद हिंदी? वे खीझ गए थे और इस बार उन्हें तिरस्कार की उड़ती हुई दृष्टि से देखने की बारी मेरी थी।

परदेसी भाषा पर अब्दुल्ला क्यों हो दीवाना : अंग्रेजी प्रेम के ऐसे कुछ अनुभव हमें जापान में भी हुए लेकिन भारतीयों के द्वारा, न कि जापानियों द्वारा। हमारे दूतावास के कुछ बड़े अधिकारी इसी श्रेणी में आते थे। जापानी लोग तो भारतीयों को अंग्रेजी बोलते देखकर हिंदी की
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उपेक्षा पर हमारी ही तरह दुख, विवशता और लज्जा की मूरत बन जाते थे। आपसी बातचीत में भी वे आश्चर्य जताते थे कि भारतीयों को अंग्रेजी बोलकर गर्व क्यों महसूस होता है? यदि कोई जापानी व्यक्ति ऐसा ही करेगा तो वह उनके लिए शर्मिंदगी की बात होगी।

ऐसा नहीं कि वे दूसरी भाषाओं के विरोधी हैं, लेकिन उनके लिए अपनी मातृभाषा के तिरस्कार की कीमत पर किसी विदेशी भाषा को अपनाना अकल्पनीय है। यदि आप जापान में हैं तो जापानी बोलिए या फिर अपनी मातृभाषा हिंदी। अंग्रेजी का प्रयोग तभी कीजिए जब वह अपरिहार्य हो, जैसे कि हवाई अड्डे पर, मुद्रा विनिमय केंद्र पर या विदेशी पर्यटकों से संपर्क के दौरान।

टोक्यो यूनिवर्सिटी ऑफ फॉरेन स्टडीज की ओर से आयोजित हिंदी-उर्दू शतवार्षिकी के जिस कार्यक्रम में मैं और विश्व भर से आए कुछ विद्वान आमंत्रित थे, वहाँ हिंदी का स्थान और सम्मान देखकर सुखद आश्चर्य हुआ। भारत से हजारों किलोमीटर दूर विदेशी धरती पर हिंदी की पताका गर्व से लहरा रही थी। सारे कार्यक्रम का आयोजन सिर्फ हिंदी भाषा में हुआ। अंग्रेजी का प्रयोग कहीं हुआ तो सिर्फ संदर्भ के तौर पर। तमाम भाषण हिंदी (या कुछ उर्दू में), सारी कंप्यूटर प्रस्तुतियाँ हिंदी में, कार्यक्रमों का विवरण हिंदी में, छात्रों द्वारा अभिनीत नाटक हिंदी और उर्दू में, जापानी छात्र-छात्राओं से वार्तालाप हिंदी में, सम्मेलन के प्रतिवेदन हिंदी में और स्मारिकाएँ, पत्रिकाएँ एवं अन्य सभी दस्तावेज भी हिंदी में। छात्र-छात्राओं ने बहुत सुंदर प्रार्थना भी सुनाई- 'पितु मातु सहायक स्वामी सखा, तुम ही इक नाथ हमारे हो'।

सभी जापानी विद्वान हिंदी बोल रहे थे। प्रो. युताका असादा साहब की खालिस उर्दू (उनका प्रारंभिक वाक्य ही था- तशरीफ़ आवरी के लिए शुक्रिया) और रेडियो जापान से जुड़ी रहीं श्रीमती मिवाको कोएजुका की त्रुटिहीन हिंदी और विशुद्ध भारतीय उच्चारण कानों में मिश्री-सा घोल गए। अमेरिका, जर्मनी, पोलैंड, मॉरीशस आदि देशों से आए विद्वान भी न सिर्फ हमारे साथ हिंदी में बात कर रहे थे बल्कि आपसी वार्तालाप के लिए भी हिंदी का ही प्रयोग कर रहे थे।

सात दिन की उस अवधि में हमने एक अंतरराष्ट्रीय माहौल में हिंदी को उसके विश्वरूप में देखा। वहाँ हिंदी एक अंतरराष्ट्रीय संपर्क भाषा का काम कर रही थी। कहीं अंग्रेजी का दखल नहीं, कहीं हिंदी में प्रवीणता को लेकर अपराध-बोध नहीं। काश, हिंदी का वह गौरव हम उसके अपने देश में भी स्थापित कर सकें।

अमेरिकी शैली अपनाई, भाषा नहीं : जापान की जीवनशैली पर अमेरिकी प्रभाव दिखाई देता है। हिरोशिमा-नागासाकी की विनाशलीला की दुखद
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यादों के बावजूद जापानी लोग पाश्चात्य तौर-तरीकों को पसंद करते हैं। कुछ जापानी द्वीपों पर द्वितीय विश्वयुद्ध के छह दशक बाद आज भी अमेरिका का आधिपत्य है। युद्ध को याद कर लोग आज भी भावुक हो जाते हैं, लेकिन व्यावहारिक जीवन में इन यादों से उबर गए लगते हैं। वे जीवट और संकल्प वाले लोग हैं। तभी तो परमाणु बम का आघात झेलने के दो दशक के भीतर 1964 में जापान ने बुलेट ट्रेन शुरू कर दी और उसी साल ओलिंपिक खेल आयोजित कर लिए। संयोगवश, जापान 2016 के ओलिंपिक खेलों के आयोजन की दौड़ में भी शामिल है।

भारत की तरह वहाँ भी बुजुर्ग अपनी एशियाई पहचान को बचाए रखने के लिए कुछ चिंतित दिखते हैं जबकि नई पीढ़ी पश्चिमी संस्कृति में ढल गई है। आश्चर्य का विषय है कि पश्चिमी भाषाओं से न्यूनतम संबंध रखते हुए भी जापानी लोग पश्चिमी संस्कृति के साथ तालमेल बिठाने में सफल रहे हैं।

जापान की सड़कों पर काफी हद तक अमेरिका जैसा ही माहौल दिखता है। साफ-सुथरे मार्ग, अनुशासित चालक, साइकिल सवारों तथा पैदल लोगों के लिए अलग से व्यवस्था, समय के पाबंद वाहन, ट्रैफिक नियमों का शब्दशः पालन करते लोग और आधुनिक पाश्चात्य वस्त्रधारी लोगों की कतारें। हाँ, वहाँ की सड़कों के किनारे और इमारतों पर अंग्रेजी के बिलबोर्ड, पोस्टर या नामपट्ट दिखाई नहीं देते और अमेरिका के विपरीत, जापान में लेफ्ट हैंड ड्राइव है।

फिरंगियों जैसे ही गोरे : जापानी भी करीब-करीब अंग्रेजों और अमेरिकियों जितने ही गोरे हैं। त्वचा के रंग के आधार पर उन्हें 'यलो' (पीले)
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लोगों की श्रेणी में रखा जाता है (किंवदंती है कि जापानी शासकों ने किसी समय पश्चिमी देशों से मैत्री की जो शर्तें रखी थीं उनमें उन्हें 'अश्वेत' या 'कलर्ड' न माने जाने की शर्त भी शामिल थी) लेकिन उनके चेहरों मोहरों पर मंगोल नस्ल की छाप है और उनके कद अमेरिकियों की तुलना में छोटे हैं।

वे उनसे ज्यादा स्वस्थ और फिट भी है। इसे आप अतिशयोक्ति न मानें कि जिन हजारों लोगों को मैंने विभिन्न सार्वजनिक स्थलों देखा उनमें से मुश्किल से पाँच-सात मोटे होंगे। निन्यानवे प्रतिशत लोग एकदम दुबले-पतले और फिट। इसीलिए वे दुनिया के सर्वाधिक स्वस्थ लोगों में गिने जाते हैं। वहाँ कपड़ों की दुकानों में हम हिंदुस्तानियों की साइज के कपड़े ही नहीं दिखते। सब कपड़े पतले-दुबले साइज वालों के लिए। जापान का 'डबल एक्स्ट्रा लार्ज' साइज यानी भारत और अमेरिका जैसे देशों का 'लार्ज' या 'मीडियम लार्ज' साइज है। मुझे अपने लिए सही आकार के कपड़े ढूँढ़ने के लिए बहुत से परिधान स्टोरों के चक्कर काटने पड़े। जो भारतीय अपने आपको स्लिम और फिट मानते हैं उन्हें टोक्यो जाकर अहसास होता है कि वे कितने 'स्लिम' हैं (या नहीं)।

जापानी लोग अपनी फिटनेस का श्रेय संतुलित, वसारहित भोजन, सक्रियता और व्यायाम को देते हैं। स्वास्थ्य के प्रति उनकी अद्वितीय जागरूकता को देखने के बाद मुझे यह तथ्य आश्चर्यजनक नहीं लगा कि वहाँ शतायु पार कर चुके 36 हजार से अधिक लोग मौजूद हैं और उनकी पेंशन देते रहने के मुद्दे पर सरकार उलझन में है।

अमेरिका और अन्य पश्चिमी देशों की ही तरह टोक्यो में भी बसों में सामान रखने का काम या तो खुद ड्राइवर करता है या हर बस स्टॉप पर नियुक्त टिकट वितरक। कई बार उसे देखकर दया आती है कि बेचारा चालीस-पचास सवारियों के भारी-भरकम सामान खुद उठाता, रखता और उतारता है। सवारियाँ खड़ी देखती रहती हैं लेकिन वे अपना सामान खुद नहीं रख सकती। यही नियम है।
जापानियों की ईमानदारी का भी एक नमूना देखिए। जब हम बसों में घूमने निकलते थे तो हमें अंदाजा नहीं होता था कि किराया कितना देता है। हम अपना पर्स जापानी बस ड्राइवर के आगे कर देते थे। वह उसमें से ठीक-ठीक किराया निकाल लेता था और मय रसीद पर्स लौटा देता था। बचपन में हम अपने राजस्थान के लिए सुनते थे कि अगर कोई व्यक्ति अपनी कोई वस्तु कहीं भूल गया तो वह कई घंटे बाद भी उसे वहीं पड़ी मिलेगी। जापान में ऐसा आज भी होता है। सामान चोरी जाने या जेब कटने जैसी आशंकाओं को आप भारत में ही छोड़कर जा सकते हैं।

अगर दूर से देखिए तो टोक्यो की सड़कों पर चलते लोग अमेरिकियों जैसे ही दिखाई देते हैं। कोट, ओवरकोट, महँगे जैकेट्स, जीन्स, साफ-सुथरे शर्ट-पैंट और चमचमाती टाइयाँ। जैसे नए खरीदे वस्त्र पहन रखे हों। मैं भारत से रवाना होने तक यह सोचता था कि वहाँ मुझे महिलाओं का पारंपरिक वस्त्र 'किमोनो' पहने अनेक स्त्रियाँ दिखाई देंगी। लेकिन इतने दिनों में ऐसी सिर्फ एक महिला दिखाई दी। पारंपरिक जापानी पंखे भी इक्का-दुक्का ही दिखे।

प्रदूषण, वह क्या होता है? : एक वस्त्र जो अमेरिका में नहीं दिखता लेकिन जापान में खूब दिखता है, वह है मुँह पर लगाया जाने वाला मास्क। जापान के बाजारों, सड़कों, मॉल, ट्रेनों आदि में मास्क लगाए ढेरों लोग दिखाई देते हैं। मुझे उन्हें देखकर सार्स की महामारी वाले दिन याद आ गए जब हमने भी मास्क खरीदा था। यह अलग बात है कि उसे एकाध बार लगाने के बाद कभी नहीं पहना।
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जापानी लोग स्वास्थ्य के मामले में बेहद जागरूक और सतर्क हैं। वे उससे कोई समझौता नहीं करते। मैंने उनसे मास्क पहनने का कारण पूछा तो पता चला वे धूल कणों, वायु प्रदूषण और पराग कणों से होने वाली एलर्जी से बचने के लिए ऐसा करते हैं। धूल कण और प्रदूषण? मुझे सुनकर ताज्जुब हुआ क्योंकि वहाँ धूल और गंदगी का नामोनिशान भी दिखाई नहीं देता। वायु प्रदूषण भी ऐसा नहीं कि महसूस हो।

इस बारे में एक बुजुर्ग जापानी महिला का उदाहरण उल्लेखनीय है। टोक्यो में एक सड़क के करीब जरा-सा कचरा पड़ा था। वह वहाँ कैसे आया यह भी एक दिलचस्प शोध का विषय है- शायद किसी ने छोड़ दिया हो, या उड़ते हुए वहाँ आ गया हो। बहरहाल, वह महिला काफी देर से सड़क के दूसरी ओर बड़ी उलझन में खड़ी थी। वह वाहनों के निकल जाने का इंतजार कर रही थी और जैसे ही सड़क खाली हुई उसने सड़क पार की और कूड़ा उठाकर इस पार अपने घर के कूड़ेदान में डाल दिया। ऐसा करके वह बड़े सुकून के साथ घर में विलुप्त हो गई।

जापानी लोग न खुद गंदगी फैलाते हैं और न ही दूसरों की फैलाई गंदगी को उठाने में जरा-सी भी हिचक महसूस करते हैं। इसके लिए वे किसी शाबासी की भी उम्मीद नहीं करते। उनकी देखादेखी मैंने भी एकाध जगहों पर ऐसा ही किया और कई बार सोचता रहा कि हम हिंदुस्तानी भी ऐसे क्यों नहीं हो सकते?

टोक्यो में जल और ध्वनि प्रदूषण भी नहीं दिखा। वहाँ सड़कों के किनारों पर विशेष किस्म की दीवारें दिखाई दीं जो वाहनों की आवाजों को
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फैलने से रोकती हैं। सड़कों पर कानफाड़ू शोर अनुपस्थित है। सब बेहद शांत। न कहीं हॉर्न की आवाज और न ही मोबाइल फोन की घंटी बजने की। पश्चिमी देशों की तरह जापान में भी हॉर्न तभी बजाया जाता है, जब कोई बड़ी विपदा आन पड़ी हो। अन्यथा, सब वाहन अनुशासन से, किसी भी रूप में दूसरे लोगों की शांति भंग किए बिना आगे बढ़ते रहते हैं।

हमारे यहाँ लोग सार्वजनिक स्थानों पर भी मोबाइल फोन पर बेहद बेतकल्लुफ होकर बात करते हैं। टोक्यो में मुझे अपने आठ दिन के प्रवास में एक बार भी मोबाइल की घंटी सुनाई नहीं दी, न ही कोई व्यक्ति उस पर बात करते सुनाई दिया। शायद सब अपने मोबाइल फोन को वाइब्रेटर मोड में रखते हैं। ट्रेनों और मॉल्स में जहाँ हजारों लोग इकट्ठे होते हैं, वहाँ भी कोई ध्वनि प्रदूषण महसूस नहीं होता। प्रदूषण को लेकर जापानियों की यह जागरूकता संभवतः 'भाषायी मिलावट' पर भी लागू होती है।

सब फिट और फैशनेबल : जापानी व्यावसायिक प्रतिष्ठानों पर 'जरा-सी' अंग्रेजी दिखती है जो शायद पर्यटकों की सुविधा के लिए है। लेकिन उसका अनुपात बेहद कम है। सिर्फ प्रतिष्ठान का नाम अंग्रेजी में होगा, बाकी सारा विवरण जापानी में। मॉल्स और दुकानों के भीतर भी अंग्रेजी जानने वाले लोग इक्का-दुक्का ही। मैं अपनी पत्नी के लिए एक लोंग जैकेट खरीदना चाहता था, लेकिन किसी भी सेल्समैन या सेल्सगर्ल को यह समझाने में नाकाम रहा कि मुझे कैसा जैकेट चाहिए। वे अंग्रेजी या हिंदी नहीं जानते थे और मैं जापानी। तब मैंने चित्रों की भाषा से काम लिया और एक कागज माँगकर उस पर चित्र बना-बनाकर डिजाइन, लंबाई आदि समझाई।

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जापान में अमेरिका, फ्रांस, ब्रिटेन आदि के फैशन का प्रभाव तो साफ दिखाई देता है, लेकिन विशुद्ध जापानी फैशन भी आपकी नजरों से चूक नहीं सकते। विशेषकर उनके बालों के स्टाइल। आपने जापानी कार्टून फिल्मों में पात्रों को लंबे-लंबे बालों, तीखी नोकों वाली कलमों को देखा होगा। उन्हें आप टोक्यो में साक्षात देख सकते हैं। जापानी युवाओं को फैशन से स्पष्ट लगाव है और वे प्रयोगों से संकोच नहीं करते। आजकल वहाँ लंबे बालों का फैशन दिखता है। हेअर जेल लगाकर करीने से 'उलझाकर' सँवारे हुए लंबे बालों की अनोखी हेअर स्टाइलें देखना मुझे बड़ा दिलचस्प लगा।

युवकों में 'मोगली' के जैसी लंबी लटों वाली स्टाइल खूब दिखी। हम भारतीय युवक अपना व्यक्तित्व सँवारने के लिए कपड़ों, जूतों, चश्मे, घड़ी आदि को शायद अधिक प्रमुखता देते हैं, लेकिन जापान में सजे-सँवरे, अनूठे स्टाइल में निखरे बाल फैशन का अनिवार्य हिस्सा हैं। मैंने कई युवतियों को सुनहरे, लाल, बैंगनी, नीले आदि चटखीले रंगों के बालों में भी देखा। कुछ युवतियों ने अपनी फिरंगियों जैसी गोरी त्वचा को बहुत ज्यादा 'टैनिंग' के जरिये स्वयं को हम हिंदुस्तानियों से भी ज्यादा साँवला कर लिया था। लोग ठीक कहते हैं, जिसके पास जो नहीं होता वही ज्यादा अच्छा लगता है। (सभी चित्र : बालेन्दु दाधीच)

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