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नशे को ना कहें, शान से जिएँ

26 जून - अंतरराष्ट्रीय नशा विरोध दिवस

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, मंगलवार, 1 जुलाई 2008 (12:53 IST)
- विशाल मिश्रा

मुझे पीने का शौक नहीं पीता हूँ गम भुलाने को। गुटखा, पाउच आदि के बिना खाना हजम नहीं होता। तंबाकू से तो दाँत सुरक्षित रहते हैं आदि जुमले आप मद्यपान करने वाले और व्यसनी लोगों से दिन-रात सुनते होंगे। ये वो तर्क हैं जोकि वे अपने नशा करने के पक्ष में देते हैं।

मुझे लगता है कि वर्तमान केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री डॉ. अंबुमणि रामदास पहले देश के स्वास्थ्य मंत्री होंगे जिन्होंने इस समस्या पर इतना सतत ध्यान दिया और गंभीरता के साथ उठाया और नशे पर रोक लगाने के लिए अनेक उपायों की शुरुआत की। जैसे सार्वजनिक रूप से धूम्रपान पर रोक लगे। फिल्मों में शराब या सिगरेट पीने के दृश्यों को न दिखाया जाए।

  गम गलत करता अभिनेता क्या धुएँ के छल्ले उड़ाएगा तो ही गमगीन दिखाई देगा। बिना शराब की बोतल लिए वह दुखी नहीं दिखाई दे सकता। आज का युवा इन अभिनेताओं से कितना प्रभावित है।      
उनका विरोध करने वाले देश के महानायक अमिताभ बच्चन कहते हैं- तो फिर देवदास जैसी फिल्में कैसे बनेंगी? मैंने जब से होश संभाला है और अमिताभ जी के द्वारा कही गई बातें सुनीं और पढ़ीं। उनके साक्षात्कार पर तो विशेष ध्यान देता हूँ। उनकी केवल यही बात पहली और सबसे ज्यादा दुखी करने वाली लगी। बिग बी जितने अच्छे अभिनेता हैं, उतने ही अच्छे इंसान भी हैं। तो एक अच्छे इंसान की भूमिका निभाते हुए वे रामदास के इस विचार का विरोध न करते तो क्या हो जाता? भरी सभा में लोगों के सामने हाथ जोड़कर माफी माँगने वाला इतना अच्छा इंसान समाज और इंसानियत का 'दुश्मन' कैसे हो सकता है? ख्यात फिल्म निर्देशक महेश भट्‍ट ने भी उनके सुर में सुर मिलाए।

गम गलत करता अभिनेता क्या धुएँ के छल्ले उड़ाएगा तो ही गमगीन दिखाई देगा। बिना शराब की बोतल लिए वह दुखी नहीं दिखाई दे सकता। आज का युवा इन अभिनेताओं से कितना प्रभावित है। कटिंग की दुकान पर जाएगा तो कहेगा- शाहरुख खान जैसी बना दो, अभिषेक बच्चन, सलमान खान जैसी दाढ़ी रख दो।

एक फिल्म में कुछ नए फैशन के कपड़े पहनकर आए नहीं कि वो जो शर्ट पहना है न अभी सलमान ने फलां फिल्म में वैसा चाहिए। क्या इनके धूम्रपान करते दृश्यों का जनमानस पर बुरा असर नहीं पड़ेगा? कम से कम इंसानियत के नाते जिस समाज में हम रह रहे हैं, जिनके आए पैसों से हम बेहतर जीवन जी रहे हैं, उनका तो ख्याल करें।

सरकार को लॉटरी, जुए के कारण मरता हुआ आदमी दिखता है। इस पर सरकार प्रतिबंध लगा सकती है। तो केवल चंद कागज के टुकड़ों के लिए खुलेआम 'मौत' की‍ बिक्री उचित है? ये नशीले पदार्थ तो उससे ज्यादा खतरनाक हैं जोकि प्रत्यक्ष रूप से आदमी के शरीर के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं। केवल वैधानिक चेतावनी भर लिखकर देने से क्या होगा। आज सरकार को आबकारी राजस्व के रूप में नुकसान जरूर होगा। लेकिन जब उस राज्य का देश का नागरिक इन सब चीजों से बचेगा तो फायदे भी तो होंगे। इनमें से ही कितने नशेड़ियों के इलाज के लिए सरकार को करोड़ों रुपए खर्च करने पड़ते हैं।

इन लोगों के स्वस्थ दिमाग का उपयोग कहीं न कहीं देश के हित में होगा। इसके विपरीत यदि लोग योग, ध्यान करें तो ऐसी खबरें कितना सुकून देने वाली होगी? यह बात भी तय है कि लत पड़ने के बाद आदमी खुद इस चीज को बुरा मानता है, इसके नाम से रोता है कि यार वाकई बहुत बुरी चीज है। पर अब क्या करूँ छूटती नहीं। गुजरात जैसे समृद्ध राज्य को देखकर ही सरकारें सीख लें और इनकी बिक्री नियंत्रित करे तो देश को भी काफी फायदा होगा।

कलाली, बार या शराब के किसी ठेके से लेकर आसपास चौराहे तक जा रही पीने वालों की कतार देखकर, उन्हें गिरता-पड़ता देखकर आने वाली पीढ़ियों पर क्या प्रभाव पड़ेगा? जो चीज तन, मन और धन हर तरह से आपको लूट रही है। आप ही नहीं वरन आपके परिजन जिससे परेशान हों। उससे भला आपको क्या लाभ मिलेगा? इसलिए अपनी खातिर न सही अपने घर-परिवार के बच्चों की खातिर ही इस जहर को ना कहें और खुशहाल जिंदगी को हाँ कहेंहर फिक्र को धुएँ में उड़ाने की बजाय हवा में उड़ रहे धुएँ की फिक्र करें।

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