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बहुत नाजुक हैं भारत-पाक संबंध

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- के. नटवर सिंह
पिछले सप्ताह इंग्लैंड के विदेश मंत्री भारत सरकार के अतिथि के रूप में आए। उनकी यह यात्रा न तो उनके अनुकूल रही और न ही उनके देश के। उनके व्यवहार से मुझे कृष्ण मेनन की याद आ गई। डेविड मिलिबैंड का आचरण बहुत ही रुखा, घमंडी और अक्खड़ था। उनमें वह सब कुछ था, जो एक राजनयिक में नहीं होना चाहिए। उनका असंयम कई बार आक्रामकता की हद तक पहुँच जाता था। वे अपने मुँह मियाँ मिट्ठू बनते थे।

उन्होंने भारत-ब्रितानी संबंधों को उसी तरह नुकसान पहुँचाया, जैसा किसी जमाने में रॉबिन कुक
  पाकिस्तान के भीतर के हालात चिंताजनक हैं। देश में एक कमजोर सरकार है, जिसके नेता अनुभवहीन और जबान पलटनेवाले हैं। हमारे इस महत्वपूर्ण पड़ोस में लोकतंत्र की नींव कभी ठीक से जम ही नहीं पाई है। वहाँ की सेना में 80 प्रतिशत पंजाबी रहते हैं      
ने पहुँचाया था। तब वे ब्रिटेन के विदेश मंत्री थे। वे भी एक दशक पहले अपनी भारत यात्रा के दौरान जबान पर लगाम नहीं लगा पाए थे। मुझे लगता है मिलिबैंड का भी वही हश्र होगा। वह बहुत कमजोर राजनेता हैं और अभी उन्हें बहुत कुछ सीखना है। जाहिर है, वह बिना किसी तैयारी के यहाँ आए थे।

समझ में नहीं आता कि एक अप्रिय व्यक्ति के साथ राहुल गाँधी कैसे इतना समय रह पाए। मिलिबैंड ने आतंकवाद का मसला कश्मीर विवाद के हल के साथ जोड़ा। अगर वह अपने पद पर बने रहना चाहते हैं तो उन्हें राजनय के गुर सीखने होंगे।

एक अच्छे राजनयिक के गुण क्या होते हैं? एक अज्ञात अँगरेज लेखक ने अपनी विख्यात पुस्तक 'डिप्लोमेसी' में लिखा है, 'सचाई, सटीकता, धैर्य, अच्छा मिजाज और वफादारी।' इस बात पर आपको आपत्ति हो सकती है कि बुद्धिमत्ता, ज्ञान, विवेक, गरिमा, विनम्रता, आकर्षण, मेहनत, साहस और चालबाजी को आप कैसे भूल सकते हैं। मैं इन्हें भूला नहीं हूँ, ये सब तो होने ही चाहिए। लेखक थे हेराल्ड निकल्सन।

अब पाकिस्तान की बात कर ली जाए। पाकिस्तान के भीतर के हालात चिंताजनक हैं। देश में एक कमजोर सरकार है, जिसके नेता अनुभवहीन और जबान पलटनेवाले हैं। हमारे इस महत्वपूर्ण पड़ोस में लोकतंत्र की नींव कभी ठीक से जम ही नहीं पाई है। वहाँ की सेना में 80 प्रतिशत पंजाबी रहते हैं। यही हाल आईएसआई का है, जो अक्सर अमेरिका की सीआईए की तर्ज पर काम करने लगती है। बलूचिस्तान के लोग बहुत नाराज हैं तो सिंध में बेचैनी है, उत्तर-पश्चिमी सीमांत उबल रहा है।

अफगानिस्तान एक राजनीतिक कड़ाहा है, वहाँ तालिबानियों का कानून चलता है, आतंकवादी वहाँ खुला खेल खेल रहे हैं (वे हमारे दो राजनयिकों की भी हत्या कर चुके हैं) और अल-कायदा फल-फूल रहा है। करजई सरकार की हुकूमत काबुल से बाहर नहीं चलती। नाटो सेनाओं को पसंद नहीं किया जाता। अर्थव्यवस्था मुख्यतः नशे के गैरकानूनी कारोबार पर चल रही है। पाकिस्तानियों और अफगानों के बीच भाईचारा बना हुआ है।

आतंकवादी कश्मीर में भेजे जाते हैं। इनमें से कुछ को तो पाकिस्तान से ही पैसा और ट्रेनिंग मिलती है। इन्हीं दुर्दांत आतंकवादियों को लेकर हमारे मत को स्वीकार न करके पाकिस्तान ने समझदारी नहीं दिखाई। जीवित बचे अकेले आतंकवादी ने स्वीकार किया है कि पंजाब के फरीदकोट का रहने वाला पाकिस्तानी है। पाकिस्तान को और क्या सबूत चाहिए?

इस मामले में अमेरिका और ब्रिटेन, दोनों की भूमिकाएँ दोमुँही हैं। ये दोनों चीन समेत पाकिस्तान और भारत को एक ही पलड़े पर रखते हैं। चोर और कोतवाल को एक ही बना दिया है। यह बात गुस्सा दिलाती है। अकेले जम्मू-कश्मीर में ही पाकिस्तान द्वारा भेजे गए आतंकवादियों ने 60 हजार भारतीयों की हत्या की है।

मैं करीब तीस साल पहले पाकिस्तान में राजदूत था। वहाँ मेरे कई दोस्त हैं। मैंने भारत-पाक
  1947 के बाद से ही पाकिस्तान को जिस जटिल समस्या का सामना करना पड़ रहा है, वह है पहचान का संकट। हम पंजाबी मुसलमान हैं, हम सिंधी मुसलमान हैं, हम सीमांती मुसलमान हैं, हम बलूची मुसलमान हैं      
संबंधों को सुधारने की छोटी-सी कोशिश की थी, लेकिन ताली एक हाथ से नहीं बजती। वर्ष 2004 से 2007 के बीच भारत-पाक संबंधों में हुआ सुधार स्वागतयोग्य है। समग्र वार्ता एक सही दिशा में जा रही थी। मुल्तान में 2004 में अभूतपूर्व घटना तब घटी थी, जब वीरेंद्र सहवाग के 319 रन बनाने पर पूरे स्टेडियम ने खड़े होकर तालियों से उसका स्वागत किया था। दस साल पहले की बात होती तो पूरी भीड़ मैदान में कूद आती और पिच खोदकर भारत को जीतने से रोकती।

भारत-पाक संबंध बहुत नाजुक रहे हैं। कोई छोटी-सी घटना भी संबंधों के सुधरने की राह रोक सकती है। दोस्ती के लिए तो हम चुनाव कर सकते हैं, लेकिन पड़ोसी का चुनाव नहीं किया जा सकता।

1947 के बाद से ही पाकिस्तान को जिस जटिल समस्या का सामना करना पड़ रहा है, वह है पहचान का संकट। हम पंजाबी मुसलमान हैं, हम सिंधी मुसलमान हैं, हम सीमांती मुसलमान हैं, हम बलूची मुसलमान हैं। पहले हम हिन्दुस्तानी मुसलमान थे, जिन पर ब्रितानी हुकूमत थी। पाकिस्तानियों की बहुत सारी पहचान हैं और अपनी पहचान को लेकर वे बहुत अड़ियल हैं। मेरा राजस्थानी होना मेरे हिन्दुस्तानी होने के रास्ते में नहीं आता और न मेरा हिन्दुस्तानी होना मेरी इन्सानियत के रास्ते में आता है।

विकास स्वरूप इन दिनों दक्षिण अफ्रीका में जोहान्सबर्ग में उप-उच्चायुक्त हैं। वे भारतीय विदेश सेवा के एक अफसर हैं। उनका जन्म और शिक्षा इलाहाबाद में हुई है। उनकी पुस्तक 'क्यू एंड ए' का विमोचन मेरे हाथों से 2005 में हुआ था। अब उस पर एक फिल्म बनी है, 'स्लमडॉग मिलेनियर' जिसे कई गोल्डन ग्लोब अवार्ड मिले हैं। इस पुस्तक का अनुवाद 30 भाषाओं में हुआ है। अपनी इस ख्याति को विकास विनम्रता के साथ लेते हैं।

यह ख्याति उनके दिमाग पर नहीं चढ़ी है। लोग उन्हें बहुत पसंद करते हैं। जब मैं विदेश मंत्री था तब वह मेरे दफ्तर में निदेशक के रूप में काम कर रहे थे। भारतीय विदेश सेवा ने कई लेखक पैदा किए हैं, लेकिन किसी ने भी विकास स्वरूप के बराबर का काम नहीं किया। ऐसा बिरले ही होता है कि किसी अज्ञात व्यक्ति का पहला उपन्यास दुनिया का ध्यान खींचे।
(लेखक पूर्व विदेश मंत्री हैं।)

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