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मुंबई के साथ बस्तर के आतंक पर आँसू क्यों नहीं?

हमें फॉलो करें मुंबई के साथ बस्तर के आतंक पर आँसू क्यों नहीं?
, रविवार, 17 जुलाई 2011 (09:49 IST)
मुंबई में बम धमाकों में 19 की मौत और 125 के घायल होने पर पूरे देश और दुनिया ने गहरा दुःख और आक्रोश व्यक्त किया। एक स्वर से आवाज उठी कि आतंकवादियों को कुचलकर ऐसी घटनाओं पर विराम क्यों नहीं लगता। चिंता उचित है। गृहमंत्री पी. चिदंबरम ने सवालों के जवाब में माना कि इंडियन मुजाहिदीन या माओवादी संगठन या ऐसे हर आतंकवादी संगठन से तार जुड़े होने की आशंकाओं की जाँच होगी। फिर भी मुंबई की तरह छत्तीसगढ़ के बस्तर क्षेत्र में माओवादी संगठन के आतंकवादी हमलों से हर महीने 25-50 लोगों के मारे जाने पर पूरे देश से आक्रोश की आवाज नहीं उठती।

सबसे दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति यह हो गई कि सुप्रीम कोर्ट तक ने पिछले दिनों एक फैसले में माओवादियों द्वारा किए जाने वाले हिंसक विद्रोह को विषम आर्थिक परिस्थितियों से जोड़कर जायज ठहरा दिया। एक तरफ सुप्रीम कोर्ट और सरकार नागरिकों को अपने अधिकारों तथा राष्ट्रप्रेम के प्रति जागरूक एवं जिम्मेदार होने की अपेक्षा रखती है, दूसरी तरफ देशद्रोही माओवादियों से निपटने के लिए पुलिस, सेना और आदिवासी समाज की सहायता के लिए आगे आने वाले बहादुर आदिवासियों के हथियार छीनने का आदेश देती है।

भारत की न्यायपालिका निश्चित रूप से देश की कानून-व्यवस्था तथा लोकतंत्र की संरक्षक है। न्यायाधीशों को सरकार के कामकाज में न्यायिक हस्तक्षेप तथा संवैधानिक प्रावधानों की समीक्षा का अधिकार है। लेकिन वरिष्ठतम न्यायमूर्ति जेएस वर्मा भी मानते हैं कि न्यायपालिका को भी अपनी सीमाओं का ध्यान रखना चाहिए।

आतंकवादी हिंसा पाकिस्तान या तालिबान से प्रेरित हो अथवा माओवादी संगठनों से प्रेरित हो, निर्दोष मासूम भारतीय ही मारे जा रहे हैं। संभव है सुप्रीम कोर्ट का फैसला क्रांतिकारी विचारों से प्रभावित हो, लेकिन विद्वान न्यायाधीशों के समक्ष पुनर्विचार की याचिका तत्काल पेश कर इस छोटे से तथ्य की ओर क्यों नहीं ध्यान दिलाया जाता कि देश के साढ़े छः लाख गाँवों में आज भी अर्द्ध शिक्षित चौकीदार और डाकिए की भूमिका महत्वपूर्ण है।

आदरणीय न्यायमूर्तियों को मैं अपने बचपन के निजी अनुभव के आधार पर दावा कर सकता हूँ कि गाँव में चोर-डाकुओं, अपराधियों से ही नहीं, साँपों या हिंसक जानवरों से रक्षा भी चौकीदार ही करते रहे हैं। उन्हें सामान्य पुलिस कर्मचारी जैसी तनख्वाह नहीं मिलती। बड़ी लाठी के साथ जरूरत पड़ने पर उपयोगी लाइसेंसशुदा बंदूक भी उन्हें मिलती है।

फिर देशद्रोही माओवादियों की हिंसा रोकने के लिए छत्तीसगढ़ के आदिवासी चौकीदारों (एसपीओ) को तत्काल हटाने तथा घिसी-पिटी पुरानी बंदूकें छीनने का क्या औचित्य है? मुंबई या राजधानी दिल्ली में बढ़ते अपराधों तथा आतंकवादी हमलों के कारण नेताओं, धनपतियों, अफसरों के घरों पर निजी सुरक्षा एजेंसियों के अर्द्ध शिक्षित गरीब कर्मचारियों के हाथों में बंदूकों के साथ सुरक्षा की जिम्मेदारी दिए जाने पर कथित प्रगतिशील वामपंथी, कानूनविद्, बुद्धिजीवी व नेता आपत्ति क्यों नहीं करते?

सुप्रीम कोर्ट को क्यों नहीं बताया जाता कि बस्तर के एसपीओ की तरह दिल्ली-मुंबई में इन्हें भी 3 हजार रु. या उससे भी कम तनख्वाह मिलती है। बेहद अशिक्षित व अपराधी किस्म के लोग किसी राजनीतिक दल का ठप्पा लगाकर हथियार रखने का अधिकार पा सकते हैं, लेकिन छत्तीसगढ़ के भोले-भाले अपने क्षेत्र के ज्ञानी आदिवासी सरकार से बंदूक नहीं ले सकते। मुंबई में मारे जाने वाले मजदूर या व्यापारी के खून का रंग क्या बस्तर के आदिवासी या जम्मू-कश्मीर के भोले-भाले लोगों के खून से भिन्न है?

मुंबई या दिल्ली में जब अंतरराष्ट्रीय अपराधी माफिया किसी बैंक या इलाके में गोलियाँ बरसाते हैं, तब भी तो सबसे पहले चौकीदारनुमा सुरक्षाकर्मी मारा जाता है। वह भी तो छत्तीसगढ़, उड़ीसा, झारखंड या उप्र के किसी गाँव से आया होता है। देश ही नहीं दुनिया जानती है कि माओवादी-आतंकवादी का कोई धर्म-ईमान या सिद्धांत नहीं होता। वे हत्याओं से आतंक के साथ संपूर्ण सत्ता-व्यवस्था और समाज को तहस-नहस करना चाहते हैं।

फिर मुंबई-दिल्ली और कश्मीर की आतंकवादी हिंसा की तरह माओवादी बम धमाकों को रोकने के लिए सरकार, सुप्रीम कोर्ट और समाज एकजुट होकर कड़ा संकल्प क्यों नहीं लेता? स्वतंत्रता के अधिकारों के दुरुपयोग व घिसे-पिटे कानूनों में बदलाव के लिए संसद की विशेष बैठक बुलाकर नए प्रस्ताव क्यों नहीं पारित किए जाते? छत्तीसगढ़, झारखंड, उड़ीसा या बंगाल में माओवादी हिंसा नहीं रुकने पर मुंबई और दिल्ली भी कभी सुरक्षित नहीं रह पाएगी।

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