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राजनीति का शिकार है झारखंड

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-आलोक कुमार
झारखंड कम समय में ज्यादा अनुभव वाला राज्य है। महज आठ साल में राज्य ने छः मुख्यमंत्रियों को आजमाया है। अब सातवीं बार मुख्यमंत्री की तलाश में सियासी जोड़-तोड़ जारी है। तीन साल पुरानी विधानसभा में किसी भी दल के पास बहुमत नहीं है। ऐसे में राज्य की सत्ता की कमान अब आगे कौन थामने जा रहा है? इसकी सटीक और सही भविष्यवाणी करने की स्थिति में कोई नहीं है।

राज्य में यूपीए और एनडीए के दर्जन भर नेता मुख्यमंत्री बनने का सपना बुन चुके हैं
  राज्य बनने के साथ ही झारखंड के साथ सियासत का खेल चल रहा है। खेल में शामिल खिलाड़ियों को ये खयाल ही नहीं कि जनता सब जानती है। झारखंड के चौक-चौराहों पर बहस-मुबाहिसों से सवाल उठ रहे हैं कि अलग राज्य बनाने से क्या हुआ?      
और सपने को हकीकत में बदलने के लिए सक्रिय हैं। विधायकों ने विधानसभा भंग होने से बचाने के लिए एडी- चोटी का जोर लगा रखा है। अनिश्चय और अस्थिरता की आशंका टालने के लिए राज्य में राष्ट्रपति शासन की तैयारी भी होने लगी है।

मुख्यमंत्री शिबू सोरेन 8 जनवरी को विधानसभा उपचुनाव हार गए। तब से ही राज्य में अनिश्चितता का माहौल हावी है। तुर्रा है कि हार से अपमानित होकर मुख्यमंत्री ने सीधे मन से कुर्सी नहीं छोड़ी। कुर्सी पर बने रहने के तमाम दाँवपेंच अपनाए फिर भी बात नहीं बनी तो 12 जनवरी को इस्तीफा दे दिया। सोरेन अपनी पत्नी रूपा सोरेन को तात्कालिक मुख्यमंत्री बनाकर चुनाव में उतारना चाहते थे लेकिन इस पर उनके दल के लोग ही राजी नहीं हुए। तब उन्होंने अपने भरोसेमंद विधायक चंपई सोरेन को आगे कर नया दाँव खेला।

चंपई के नाम पर यूपीए के लोग तैयार नहीं हैं क्योंकि सबको पता है कि चंपई के जरिए शिबू सोरेन की मंशा परदे के पीछे से सरकार चलाने की है। ऐसी मंशा सिर्फ शिबू सोरेन की ही नहीं बल्कि दिल्ली में बैठे कई सीनियर सियासतदानों की है। इन हालातों में कई सवाल खड़े हुए, मसलन कोई भी दल या समूह सरकार बनाने की स्थिति में नहीं है इसलिए विधानसभा भंग होगी या राष्ट्रपति शासन लगेगा या कोई नया राजनीतिक समीकरण बनेगा। राजनीतिक हालात इतने विकट हैं कि राज्यपाल के लिए कुछ भी तय करना मुश्किल हो रहा था। उन्होंने अपनी रिपोर्ट केंद्र के पास भेज दी है।

राज्य बनने के साथ ही झारखंड के साथ सियासत का खेल चल रहा है। खेल में शामिल खिलाड़ियों को ये खयाल ही नहीं कि जनता सब जानती है। झारखंड के चौक-चौराहों पर बहस-मुबाहिसों से सवाल उठ रहे हैं कि अलग राज्य बनाने से क्या हुआ? उस भावना का क्या हुआ जिसमें विपन्नाता दूर कर इस पिछड़े क्षेत्र को संपन्ना बनाने का भरोसा दिया गया था? लोग ये भी पूछ रहे हैं कि ऐसा झारखंड के साथ ही क्यों हो रहा है?

उस झारखंड के साथ जिसके गठन की सबसे ज्यादा जरूरत जताई गई थी । अलग राज्य के लिए सबसे उग्र आंदोलन हुआ। समझा तो ये जाता है कि अलग झारखंड के हिंसक आंदोलन ने ही २००० में केंद्र सरकार को नए राज्यों के गठन के फैसले के लिए मजबूर किया। जब झारखंड बनाना ही था तो उत्तराखंड और छत्तीसगढ़ को नया राज्य बना दिया गया।

नवंबर 2000 में बने भारत के तीन राज्यों में से झारखंड की हालत ही सबसे ज्यादा विकट क्यों है? सरकार बनाने और गिराने के लगातार जारी खेल की वजह से राज्य के योजना मद की रकम खर्च ही नहीं हो पा रही जबकि गैर योजना मद का खर्च लगातार बढ़ता जा रहा है। ये सब उस झारखंड के साथ हो रहा है जिसमें विकास की सबसे ज्यादा संभावना दिखाई देती रही हैं। जिसे प्रचुर खनिज संपदा के कारण भारत की रूह कहा जाता रहा। कहीं यह संशय सही तो नहीं कि प्राकृतिक संपन्नाता के कारण ही झारखंड सियासतदानों की साजिश का शिकार बना है।

सवाल इसलिए भी घुमड़ रहे हैं कि झारखंड शुरू से ही अजीबोगरीब राजनीतिक प्रयोगधर्मिता का शिकार रहा है। राज्य के गठन के साथ ही केंद्रीय नेताओं ने राज्य के विधायकों को कमतर आँकने का जो सिलसिला शुरू किया वह बदस्तूर जारी है। हर मोड़ पर झारखंड का फैसला दिल्ली में होता है। राज्य बना तो विधायकों में से नेता चुनने के बजाय सांसद बाबूलाल मरांडी को केंद्रीय मंत्रिमंडल से निकालकर राज्य का मुख्यमंत्री बना दिया गया।

केंद्रीय मंत्रिमंडल से निकालकर मरांडी को राँची पहुँचा देने के पीछे दलील दी गई कि भाजपा आलाकमान ने युवा नेता को संसदीय चुनाव में झारखंड के दिग्गज नेता शिबू सोरेन को पटखनी देने का तोहफा दिया लेकिन दो साल पूरा करते-करते पार्टी विद डिफ्रेंस वाली मरांडी की सरकार दम तोड़ गई। भीतरघात की शिकार बीजेपी ने चेहरा और चाल बदलते हुए अर्जुन मुंडा को मुख्यमंत्री बनाया और मरांडी सरकार गिराने वाले विधायकों से समर्थन लिया। आरोप लगे कि सरकार गिराने वाले बागी विधायकों को एनडीए सरकार में मंत्री बनाकर मनमर्जी करने की छूट तक दी गई।

अर्जुन मुंडा सरकार तो चली लेकिन 2005 में जब विधानसभा चुनाव हुआ तो किसी को
  अब आगे क्या होगा? आम जनता के साथ इसके जवाब की तलाश राज्य के उद्यमियों को है। उद्यमियों पर बदलते बिगड़ते सियासी समीकरण का सबसे ज्यादा असर पड़ता है। झारखंड की पहचान रहे टाटा ग्रुप ऑफ कंपनीज का हाल में परेशान करने वाला बयान आया है      
साफ बहुमत नहीं मिला। झारखंड में एक बार फिर प्रयोग हुआ। यूपीए ने केंद्र के फॉर्मूले को झारखंड में अजमाया। शिबू सोरेन के नेतृत्व में सरकार बनी लेकिन मनमोहन सिंह की तरह सोरेन किस्मत वाले नहीं रहे। झामुमो सुप्रीमो सोरेन विधानसभा में विश्वास मत हासिल करने में फेल रहे। दोबारा तोड़फोड़ से एनडीए ने अर्जुन मुंडा की सरकार बनाई। लेकिन डेढ़ साल बाद ही यूपीए की शह पर निर्दलीय विधायकों ने सूई की नोक पर चल रही मुंडा सरकार का तख्ता पलट दिया।

फिर झारखंड के निर्दलीय विधायकों ने राजनीति की नई इबारत लिख दी। मधु कोड़ा देश के पहले निर्दलीय मुख्यमंत्री बने लेकिन मुख्यमंत्री बनने की लालसा पाले शिबू सोरेन ज्यादा समय तक अपनी महत्वाकांक्षा दबाए नहीं रख सके। यूपीए को सोरेन की जिद के आगे झुकना पड़ा। बीते 27 अगस्त को कोड़ा को हटाकर शिबू सोरेन को मुख्यमंत्री की शपथ दिलाई गई और चार महीने बाद ही तमाड़ की जनता ने मुख्यमंत्री के विधायक बनने की चाहत को मटियामेट कर दिया।

अब आगे क्या होगा? आम जनता के साथ इसके जवाब की तलाश राज्य के उद्यमियों को है। उद्यमियों पर बदलते बिगड़ते सियासी समीकरण का सबसे ज्यादा असर पड़ता है। झारखंड की पहचान रहे टाटा ग्रुप ऑफ कंपनीज का हाल में परेशान करने वाला बयान आया है। सियासी उठापटक से आजिज आकर टाटा ने राज्य में नए निवेश रोक देने की धमकी दी है। प्रशासनिक जिम्मा संभालने वाले नौकरशाह भी कम परेशान नहीं हैं। जिनको हुक्म पाने के लिए बार-बार नए हुक्मदानों का सामना करना पड़ता है। ठोस सुरक्षा योजना की कमी की वजह नक्सलवाद से प्रभावित इलाके का लगातार विस्तार हो रहा है।
(लेखक टीवी से जुड़े पत्रकार हैं)

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