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वोट में बदलते जज़्बात

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- एम. बुरहानुद्दीन कासमी

जिस अमरनाथ गुफा के बारे में हिन्दुओं की यह मान्यता है कि वहाँ भगवान शिव ने पार्वती को मोक्ष का रहस्य बताया था, उसी गुफा को सबसे पहले एक मुसलमान चरवाहे बूटा मलिक ने खोजा था। आज भी यहाँ प्राप्त होने वाले चढ़ावे का एक अंश मलिक के वंशजों को मिलता है।

इससे साफ जाहिर है कि अमरनाथ यात्रा में प्रारंभ से ही हिन्दू-मुस्लिम एकता के सूत्र कायम रहे हैं। यहाँ हिन्दू लोग बड़ी आस्था के साथ दूर-दूर से आते हैं और कश्मीर के मुसलमान व्यवसाय की खातिर या कश्मीरी मेहमानवाजी के लिहाज से उन्हें हरसंभव सहायता पहुँचाते रहे हैं।

यह यात्रा सन्‌ 1958 से हिन्दुओं द्वारा स्थानीय मुसलमानों की मदद से संपन्न
  असल में आम कश्मीरी यह स्पष्ट करते रहे हैं कि वे अमरनाथ यात्रा के खिलाफ नहीं हैं और वे इसकी मदद करना जारी रखेंगे। कश्मीर के एक समाचार-पत्र की इन पंक्तियों पर गौर किया जा सकता है- 'हमने किसी यात्री को कभी नुकसान नहीं पहुँचाया है      
होती आ रही है। यद्यपि यहाँ आतंकवादियों ने अपनी ताकत दिखाने के उद्देश्य से वर्ष 2000 में कम से कम 30 और बाद में 2001 और 2002 में क्रमशः 13 और 2 निर्दोष तीर्थयात्रियों को मौत के घाट उतार दिया था लेकिन इसके अलावा कभी इस तीर्थयात्रा को राजनीतिक चश्मे से नहीं देखा गया।

जहाँ तक आतंकवादियों का सवाल है, वे अपना लक्ष्य साधने के लिए कभी हिन्दू-मुस्लिम या सिख धार्मिक स्थानों को निशाना बनाने से नहीं चूकते और न ही इनमें कोई भेद करते हैं। यहाँ 1995 की उस घटना को याद कर सकते हैं जब कश्मीर के 15वीं शताब्दी के प्रसिद्ध संत शेख नुरुद्दीन वली के मकबरे और उससे लगी चरारे-शरीफ की मस्जिद में कोई 150 आतंकवादी घुस गए थे।

हमारी सेना ने दो माह तक इन पवित्र स्थानों को अपने कब्जे में रखा लेकिन मकबरा और मस्जिद सहित आसपास के गाँवों में काफी नुकसान पहुँचा और दोनों तरफ से एक-दूसरे पर इस नुकसान को लेकर दोषारोपण किया गया। कश्मीर में 1989 में आतंकवाद की शुरुआत के बाद से श्रीनगर स्थित हजरत बल दरगाह को कई बार इस्तेमाल करने के असफल प्रयास किए जा चुके हैं।

असल में आम कश्मीरी यह स्पष्ट करते रहे हैं कि वे अमरनाथ यात्रा के खिलाफ नहीं हैं और वे इसकी मदद करना जारी रखेंगे। कश्मीर के एक समाचार-पत्र की इन पंक्तियों पर गौर किया जा सकता है- 'हमने किसी यात्री को कभी नुकसान नहीं पहुँचाया है। हम इन यात्रियों के लिए लंगर और मुफ्त आवास की व्यवस्था करते रहे हैं और हमारे इस स्वर्ग को धार्मिक समभाव की खुशबू से महकाने के लिए आगे भी ऐसा करते रहेंगे।'

यह भी सही है कि श्री अमरनाथ श्राइन बोर्ड को जमीन आवंटित करने के खिलाफ जो गुस्सा था वह पूरी तरह स्थानीय सरकार के खिलाफ था। इस गुस्से को व्यक्त करने वालों का मत था कि सरकार ने अनावश्यक और गैरकानूनी तौर पर जंगल की 40 हैक्टेयर जमीन बोर्ड को दे दी जिससे पर्यावरणीय असंतुलन भी बढ़ रहा था। यह सब जम्मू के हिन्दू वोट बैंक को खुश करने के लिए किया गया था, जिसमें कांग्रेस नीत सरकार की आँखें आगामी चुनावों पर लगी थीं।

यहाँ इस बात में कुछ दम भी नजर आता है क्योंकि 1 जुलाई 2008 को कश्मीरी लोगों के उत्पात के दबाव में जमीन आवंटन का फैसला वापस लेने के गुलाम नबी आजाद सरकार के फैसले के पहले भी अमरनाथ यात्रियों को इन उत्पातियों ने रोका नहीं था। बल्कि धार्मिक सद्भाव की मिसाल पेश करते हुए यात्रियों को उत्पात के दौरान भी खाना परोसा गया और पीने के पानी की व्यवस्था की गई।

हिंसा के बावजूद बड़ी संख्या में तीर्थयात्रियों का यहाँ आना जारी रहा। सीएनएन-आईबीएन के रिपोर्टर मुफ्ती इसलाह लिखते हैं- 'पिछले साल के दो माह में 2.5 लाख यात्रियों की बजाय इस साल सिर्फ पहले दो हफ्ते में यहाँ चार लाख से ज्यादा यात्री पहुँचे।'

पिछली घटनाओं से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि भारत में साम्प्रदायिक सद्भाव बिगाड़ने में कांग्रेस नेताओं और कार्यकर्ताओं का बड़ा हाथ रहा है। अतीत में जनता के बीच अपना समर्थन बढ़ाने के नाम पर कांग्रेस द्वारा बताई गई 'रचनात्मकता' घातक साबित हुई है और भाजपा को जवाब देने के लिए हिन्दुओं के सामने नरम हिन्दुत्व की छवि पेश करने की उसकी कोशिशों ने भारतीयों को बड़ी कीमत चुकाने पर मजबूर किया है।

पहला उदाहरण भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस द्वारा पंडोरा का पिटारा और नरक का द्वार खोलने का है जिसकी परिणति 1992 में बाबरी मस्जिद विध्वंस के रूप में हुई। फिर भारी साम्प्रदायिक दंगे भड़के और इसके नतीजे में 1993 में मुंबई में श्रृंखलाबद्ध विस्फोट हुए।

राजनीति के दम पर इतने बड़े पैमाने पर भारत में कभी साम्प्रदायिक विस्फोट नहीं हुआ था और इस कारण कांग्रेस को इसे चिंगारी देने का दोषी माना जाना चाहिए क्योंकि आज तक मंदिर-मस्जिद और शहरों में बम धमाकों का यह सिलसिला चल रहा है।

कांग्रेसी प्रधानमंत्री राजीव गाँधी ने ही अयोध्या में बाबरी मस्जिद के ताले
  3 जुलाई को इस सिलसिले में हुए भारत बंद और फिर इस दौरान इंदौर और जम्मू आदि शहरों में हुई हिंसक घटनाएँ तो मात्र एक शुरुआत है। भारतीय जनता पार्टी बहुसंख्यकों की भावनाओं को यात्रा जैसे धार्मिक मामलों पर खदबदाने में माहिर रही है      
1986 में खुलवाए थे। 1985 में शाहबानो मामले में कोर्ट के निर्णय को अमान्य करने के एक माह बाद ही कांग्रेस ने बाबरी मस्जिद राम जन्मभूमि मामले को हवा दी थी ताकि मुस्लिम वोट बैंक पक्का किया जा सके। इससे स्पष्ट है कि कांग्रेस अपनी विचारधारा से दूर हटकर वोटों की जुगाड़ में लग गई थी।

दरअसल, बाबरी नाटक नरम हिन्दुत्व की उपज थी जिसका फायदा केसरिया ब्रिगेड को मिल गया। उन्होंने मस्जिद की जगह मंदिर खड़ा करने का सपना दिखाया या यह कह सकते हैं कि बाबरी नाटक की स्क्रिप्ट कांग्रेस ने लिखी और संघ परिवार ने उसका मंचन किया और उन्हें ही इसकी वाहवाही भी मिली। बिलकुल इसी तरह कांग्रेस ने श्राइन बोर्ड को जमीन देने संबंधी विवाद की मजेदार स्क्रिप्ट लिख दी जिससे भारतभर में हिन्दू विरोध पैदा हुआ और अगले चुनाव में इसका असर दिखाई देगा।

3 जुलाई को इस सिलसिले में हुए भारत बंद और फिर इस दौरान इंदौर और जम्मू आदि शहरों में हुई हिंसक घटनाएँ तो मात्र एक शुरुआत है। भारतीय जनता पार्टी बहुसंख्यकों की भावनाओं को यात्रा जैसे धार्मिक मामलों पर खदबदाने में माहिर रही है। अभी भी वह जमीन मामले को चुनाव तक जीवित रखने के प्रयास में लगी हुई है। भाजपा के चुनावी एजेंडे में अमरनाथ मुद्दा चरमोत्कर्ष तक पहुँचेगा और कांग्रेस को इसका बड़ा नुकसान उठाने के लिए तैयार रहना चाहिए।

यहाँ हम भारतीय राजनीति में अवसरवाद का घिनौना चेहरा आसानी से देख सकते हैं। मुफ्ती मोहम्मद सईद की पीडीपी, जो कभी जमीन आवंटन के निर्णय में हिस्सेदार थी वह इसी निर्णय को वापस लेने के मुद्दे पर कांग्रेस के साथ भागीदारी तोड़ चुकी है। लंदन से मुर्जता शिब्ली ने लिखा है- 'कुछ ही दिनों पहले कश्मीर के वन मंत्री काजी मोहम्मद अफजल, जो कि पीडीपी से हैं, खुलेआम जमीन आवंटन में अपनी भूमिका की डींगें हाँक रहे थे।

लेकिन अवाम का विरोध देखते हुए इसी पीडीपी ने न सिर्फ सरकार से समर्थन वापस ले लिया बल्कि इस विरोध की आग को और हवा देने वाले नस्लवादी मानसिकता जैसे बयान खुलेआम प्रसारित किए और इस प्रकार विरोध और हिंसा की राजनीति को बढ़ाया ही'।

चूँकि श्री अमरनाथ श्राइन बोर्ड ने स्वयं जमीन संबंधी आवेदन वापस ले लिया है और राज्य सरकार ने यात्रा की जिम्मेदारी अपने हाथों में ले ली है तो विवाद यही समाप्त हो जाना चाहिए। लेकिन यह भारत की राजनीति है जहाँ भावुक और धार्मिक मुद्दों को उठाकर जनता को भड़काया जाता है और फिर उस पर राजनीतिक स्वार्थ सिद्ध किया जाता है।

जहाँ पीडीपी और हुर्रियत (अलगाववादी) का राजनीतिक खेल खत्म हो गया है वहीं संघ परिवार की बँटवारे के अवसर वाली राजनीति शुरू हो गई है। अपनी मतपेटियाँ भरने के लिए भाजपा आखिरी दम तक इस मुद्दे को भुनाने से नहीं चुकेगी। (लेखक इस्लामी पत्रिका ईस्टर्न क्रिसेंट के संपादक हैं।)

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