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पूजन सामग्री की महत्ता

हमें फॉलो करें पूजन सामग्री की महत्ता
- पूज्य पांडुरंग शास्त्री आठवले

'पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति।
तदहं भक्त्यु पहृतमश्नामि प्रयतात्मनः॥'

'पत्र, पुष्प, फल या जल जो मुझे (ईश्वर को) भक्तिपूर्वक अर्पण करता है, उस शुद्ध चित्त वाले भक्त के अर्पण किए हुए पदार्थ को मैं ग्रहण करता हूँ।'

भावना से अर्पण की हुई अल्प वस्तु को भी भगवान सहर्ष स्वीकार करते हैं। पूजा में वस्तु का नहीं, भाव का महत्व है।

परंतु मानव जब इतनी भावावस्था में न रहकर विचारशील जागृत भूमिका पर होता है, तब भी उसे लगता है कि प्रभु पर केवल पत्र, पुष्प, फल या जल चढ़ाना सच्चा पूजन नहीं है। ये सभी तो सच्चे पूजन में क्या-क्या होना चाहिए, यह समझाने वाले प्रतीक हैं।

पत्र यानी पत्ता। भगवान भोग के नहीं, भाव के भूखे हैं। भगवान शिवजी बिल्व पत्र से प्रसन्न होते हैं, गणपति दूर्वा को स्नेह से स्वीकारते हैं और तुलसी नारायण-प्रिया हैं! अल्प मूल्य की वस्तुएँ भी हृदयपूर्वक भगवद् चरणों में अर्पण की जाए तो वे अमूल्य बन जाती हैं। पूजा हृदयपूर्वक होनी चाहिए, ऐसा सूचित करने के लिए ही तो नागवल्ली के हृदयाकार पत्ते का पूजा सामग्री में समावेश नहीं किया गया होगा न!

पत्र यानी वेद-ज्ञान, ऐसा अर्थ तो गीताकार ने खुद ही 'छन्दांसि यस्य पर्णानि' कहकर किया है। भगवान को कुछ दिया जाए वह ज्ञानपूर्वक, समझपूर्वक या वेदशास्त्र की आज्ञानुसार दिया जाए, ऐसा यहाँ अपेक्षित है। संक्षेप में पूजन के पीछे का अपेक्षित मंत्र ध्यान में रखकर पूजन करना चाहिए। मंत्रशून्य पूजा केवल एक बाह्य यांत्रिक क्रिया बनी रहती है, जिसकी नीरसता ऊब निर्माण करके मानव को थका देती है। इतना ही नहीं, आगे चलकर इस पूजाकांड के लिए मानव के मन में एक प्रकार की अरुचि भी निर्मित होती है।

पुष्प भी एक प्रतीक है। भगवान का खिलाया हुआ पुष्प भगवान के चरणों पर धरने में कौन-सी विशेषता है? पुष्प चढ़ाने की यह क्रिया हमें याद दिलाती है कि हमें वाणीपुष्प, कर्मपुष्प और जीवनपुष्प से ईशपूजन करना चाहिए। पुष्प में सुगंध है, रंग है, मकरंद है और मार्दव है। पुष्प जैसा बनने के लिए हमारा जीवन भी सत्कर्मों के सौरभ से महकना चाहिए, भक्ति के रंग में रंगा हुआ होना चाहिए, ज्ञान के मकरंद से पूर्ण होना चाहिए और प्रेम के मार्दव से मुलायम होना चाहिए। हमारे हृदय को कमल की उपमा दी जाती है। इस दृष्टि से देखने पर पुष्प अर्पण में हृदय समर्पण का अर्थ भरा है।

फल का अर्थ है कर्मफल। जिसकी शक्ति से कर्म होते रहते हैं, वही कर्मफल का सच्चा अधिकारी है। 'इदं फलं मया देव स्थापितं पुरतस्तव।' ऐसा कहकर जब प्रभु के सामने मौसम के विविध फलों को अर्पण करें तब कर्मफल भी अर्पण करने की बात नहीं भूलनी चाहिए। कौन से कर्म का फल भगवान खाएँगे? 'भूतभावोद्भवकरः विसर्गः कर्मसंज्ञितः' भूतों का भाव और उद्भव करने के लिए आपने जो कुछ किया हो वही सच्चा कर्म माना जाता है और उसका ही फल भगवान लेते हैं। कर्मफल को स्वीकार करने का हमें अधिकार नहीं है।

कर्मफल को त्याज्य मानकर फेंक देना भी योग्य नहीं है। इसलिए गीता ने समर्पण का सुंदर मार्ग दिखाया है। भगवान के चरणों में समर्पित फल प्रसाद बनता है और यही प्रसाद हमारे जीवन में प्रसन्नता निर्माण करता है। भगवान को नैवेद्य चढ़ाना या भगवान के पास अन्नकूट रखना इन सबके पीछे यही भाव निहित है। 'भगवान, तुम्हारी शक्ति से सबकुछ मिला है, इसलिए तुम्हारे चरणों में अर्पण कर बाद में ही प्रसाद के रूप में मैं उसे स्वीकार करता हूँ।' ऐसी कृतज्ञता बुद्धि उसके पीछे अपेक्षित है।

तोयं यानी पानी-जीवनरस। जीवन रसमय बनाकर भगवान के चरणों में रखना चाहिए। जब तक जीवन जीने जैसा लगता है, तब तक ही उसे प्रभु कार्य में समर्पित करना सच्ची पूजा है। गन्ने का रस निकालने वाला गन्ने को एक बार मशीन में डाले, दूसरी बार डाले, तीसरी बार डालकर और चूरा हो जाने के बाद हमें कहे, अब इसे चूसो तो वह हमारा सत्कार नहीं कहलाएगा। इस तरह शुष्क बन जाने के बाद जीवन भगवान के हाथ में देकर कहें कि भगवान! अब यह जीवन तुम्हारे लिए है, तो उसमें क्या अर्थ होगा? इसलिए रसमय जीवन ही समर्पण करना चाहिए।'

संक्षेप में प्रभु को प्रेमपत्र लिखना, जीवन पुष्प उसके चरणों में अर्पण करना, कर्मफल उसे समर्पित करना और रसयुक्त जीवनकाल में ही प्रभु के काम में लग जाना प्रभु का सच्चा पूजन माना जाएगा।

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