Select Your Language

Notifications

webdunia
webdunia
webdunia
webdunia
Advertiesment

योग स्वास्थ्य का मूलाधार

हमें फॉलो करें योग स्वास्थ्य का मूलाधार
NDND
-डॉ. आर.के. पंडित

योगिक चिकित्सा मानवता को चिरकाल से पीड़ित कर रही कई समस्याओं का समाधान प्रस्तुत करती है। सामान्यतः रोग शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक एवं आध्यात्मिक कारणों से होते हैं।

योग विद्या एक ऐसी ऊर्जा है जो मन में प्रविष्ठ होकर एक सशक्त विचार बन जाती है और जब यह विद्या अभ्यास में उतरती है तो कई व्याधियों से उबरने का समर्थ साधन सिद्ध होती है।

योग विद्या द्वारा (योगिक क्रियाओं द्वारा) ऐसी व्याधियों पर पर भी नियंत्रण पाया गया है, जो अब तक आधुनिक चिकित्सा पद्धति के द्वारा नियंत्रित नहीं हो पाई हैं।

योग सिर्फ क्रियाओं का अभ्यास नहीं है, वरन्‌ एक संपूर्ण जीवन शैली है।

रोग हमें यह संकेत देते हैं कि अब तक हम एक गलत जीवन शैली एवं विचारधारा में जी रहे थे, जिससे शरीर के प्राकृतिक नियमों का उल्लंघन हो रहा था, इसलिए उनका संतुलन बिगड़ गया। होता यह है कि आम जीवन में रोग को दूर करने के लिए दवाएँ खाते हैं और स्वास्थ्य के मूल नियमों का उल्लंघन भी करते रहते हैं। फलतः रोग की जड़ वहीं रहती है सिर्फ लक्षण दबे रहते हैं।

अतः केवल औषधियों से पूर्ण स्वास्थ्य कभी प्राप्त नहीं किया जा सकता। 'योग द्वारा चेतना का विकास ही स्वास्थ्य का मूल मंत्र है।'योग आत्म-विद्या का बीज है, उसकी साधना से चेतन पर छाया आवरण दूर होता है।

* योगियों द्वारा खोजा गया अनूठा स्वास्थ्य विज्ञान है। स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मन रहता है, स्वस्थ मन से निर्मल भावना का विकास होता है भावना की निर्मलता ध्यान को स्थिर बनाती है। स्थिर ध्यान से आत्मा अनावृत्त होती है। चेतना को अनावृत्त बनाने के लिए पहला कदम है, शरीरकी सुखपूर्वक स्थिरता (स्थिर सुखमासनम्‌)

* इससे शरीर स्वस्थ और शक्तिशाली बनता है।

* सही आसन व मुद्रा से शरीर, मन और भावों में परिवर्तन घटित होता है, जैसी मुद्रा होती है वैसा भाव होता है, जैसा भाव होता है वैसा स्त्राव होता है, वैसा स्वभाव होता है, वैसा व्यवहार होता है।

आसन केवल हाथ-पैरों को ऊँचा-नीचा करना ही नहीं है अपितु शरीर के अवयवों के खिंचाव, मन के चिंतन एवं भावदशा के आधार पर आसन के परिणाम का निश्चय किया जाता है। श्वास-प्रश्वास के सम्यक नियमन से आसन की गुणवत्ता बढ़ जाती है, इसलिए आसन के साथ श्वास का सही नियमन होना चाहिए जिससे प्राण-शक्ति का विकास होता है। प्राणायाम के अभ्यास से शरीर में कांति और लाघव शक्ति का विकास होता है।

योग हमें वह 'दिव्य दृष्टि' प्रदान करता है जिसके द्वारा हम सांसारिक समस्याओं के साथ आंतरिक शंकाओं का समाधान यथार्थतः प्राप्त करते हुए अतीन्द्रिय तत्वों के संबंध में प्रचलित विविध मान्यताओं से उत्पन्न विवादों को सरलता से समाप्त कर सकेंगे। अंतिम एकमात्र सत्य कानिर्भ्रान्त अटल साक्षात्कार हो जाने पर मत-मतांतरों के विवाद, झगड़े फिर स्वतः शांत हो जाएँगे। साधारण गृहस्थ नर-नारी जो अपनी दुर्बल रोगी काया, निस्तेज इंद्रियग्राम, चंचल मन-बुद्धि के कारण दैनिक सुख-शांति से भी वंचित हैं वे अपनी थकी-हारीे देहों को आसनों, प्राणायाम आदि के दैनिक अभ्यासों से दृढ़, स्फूर्तिवान, इंद्रियों को शक्तिवान बना सकते हैं। खोई हुई एकाग्रता (मन-बुद्धि को) वापस प्राप्त कर सांसारिक सुखों का उपभोग करने में समर्थ हो सकते हैं। योग के बहिरंग अंग यम, नियम, आसन, प्राणायाम एवं प्रत्याहार, बालक,वृद्ध, युवक, रोगी, स्वस्थ, गृहस्थ, वनस्थ, संन्यासी, ब्रह्मचारी, स्त्री-पुरुष सभी के लिए लाभकारी है। इन अभ्यासों को अध्ययन के साथ करना लाभकारी है।

योग का उद्देश्य है जीवन का सर्वांगीण विकास करना। र्स्वांगीण विकास से तात्पर्य है शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक तथा आत्मिक विकास करना है।

धर्मार्थ काममोक्षाणामारोग्यं मुल मुत्ततम्‌ -आयुर्वेद

अर्थ : धर्म-कर्म का अनुष्ठान, अर्थोपार्जन, संतति उत्पादन तथा मोक्ष की सिद्धि करने के लिए स्वस्थ-निरोग शरीर आवश्यक होता है। देह स्वस्थ-निरोग हुए बिना इनमें से एक का भी लब्ध होना संभव नहीं है। यह ध्रुव सत्य है। अतएव ''शरीर माद्यं खलु धर्म साधनम्‌''- शरीर पूर्णतःस्वस्थ-निरोग होना वांछनीय है। निरोग शरीर के द्वारा ही धर्म-कर्म का अनुष्ठान तथा मोक्ष साधन संभव है, अन्यथा नहीं।

जहाँ शरीर रोगग्रस्त है वहाँ सुख कहाँ, शांति कहाँ, आनंद कहाँ? भले ही वित्त वैभव, इष्ट-कुटुम्ब तथा नाम, यश सब कुछ प्राप्त हो फिर भी यदि शरीर स्वस्थ नहीं है, रोगी है तो जीवन एक भार बन जाता है, जीवन व्यतीत करना दूभर हो जाता है।

Share this Story:

Follow Webdunia Hindi