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फिर धरती को पहनाएं हरी चुनर-धानी

प्रकृति के उपहार हैं गर्मी-धरती-पेड़-पानी

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अरूण कुमार जैन

प्रकृति-प्रदत्त तोहफों में यह सर्वदा सत्यापित है कि जो भी परिवर्तन होते हैं, वह अचानक या एकदम नहीं होते वरन् वे परिवर्तन धीरे-धीरे होते हैं। धीरे-धीरे होने वाला हर कार्य ठोस और मजबूत होता है, स्‍थिर होता है। दूसरे शब्दों में कहें तो प्रकृति-प्रदत्त विकास या विस्तार स्थाई स्वरूप का, स्थायित्व लिए होता है।


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प्रकृति-परिवर्तन में दशकों लगते हैं तो उसके द्वारा स्थापित व्यवस्था को फिर बदलना शताब्दियों का काम होता है। इसीलिए, पुरातन काल में यह मान्यता थी कि प्रकृति से छेड़छाड़ करना मतलब अपना जीवनकाल नरक में डालना बराबर है। तात्पर्य यह कि आपने प्रकृति को सहेजा है तो आपको पृथ्वी पर ही स्वर्ग मिल जाएगा और यदि आप प्रकृति के प्रति निर्मम रह अत्याचार करते हैं तो धरती का स्वर्ग, नरक बनते देर नहीं लगेगी।


दरअसल, प्रकृति स्वयं बेहद दयालु है, कृपालु है। उसे सहेजना मतलब उसकी उपेक्षा नहीं करना है। यदि आपने इतना कर लिया तो फिर आप प्रकृति से अपेक्षा रख सकते हैं और वह आपको कभी निराश नहीं करती वरन् आपकी अपेक्षा पर सदैव खरी उतरती है।

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आज के दौर में प्रकृति को सहेजने का सर्वप्रथम कदम हमें उसकी हरियाली-हरीतिमा को संरक्षित करना है। इसी संरक्षण में हमारे द्वारा उजाड़े गए हरित क्षेत्रों को पुन: आबाद करना, पौधारोपण करना और उसे बढ़ावा देना; हर द्वार, मोहल्ले, पड़त भूमि पर पौधों और वृक्षों को उगाना और बढ़ाना शामिल है।

यदि हमने यह कदम सही ढंग से उठा लिया तो कई काम एकसाथ सध जाएंगे, यथा पौधारोपण सही ढंग से बड़ी मात्रा में हो गया तो धरती की पहली परत संरक्षित हो जाएगी जिससे 'मृदा-अपरदन' (Soil Erosion) स्वत: रुक जाएगा। इसका ‍‍परिणाम यह होगा कि हमारे नदी-नालों की उम्र बढ़ जाएगी। उनमें गाद भर जाने से असमय नदी की मौत नहीं होगी।


अरबों-खरबों रुपए से चलाए गए गंगा-सफाई अभियान जैसे अभियानों की जरूरत नहीं रह जाएगी। यही कारण है कि गांवों में आज भी तालाब किनारे मेड़ पर पेड़ लगे दिखाई दे जाते हैं। ये तालाबों की मिट्टी तो बांधे ही रखते हैं, साथ में राहगीरों को छाया एवं फल भी प्रदान करते हैं।

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सघन पौधारोपण पक्षियों को आश्रय देने के साथ स्वस्‍थ एवं स्वच्‍छ वायु प्रदान करते हैं। गिरी हुईं पत्तियां धरती की उर्वरा शक्ति बनाए रखने के लिए खाद और ईंधन की पूर्ति हेतु छोटी-छोटी डालियां, शाखाएं पेड़ों से प्राप्त होती हैं। ये पेड़ ही हैं, जो वर्षा को आमं‍त्रित-आकर्षित करते हैं। धरती का तापमान कम रखने और गर्मी से राहत प्रदान करने में इन पेड़ों का कोई सानी नहीं हो सकता। यह सही समय है, जब हम पौधारोपण की तैयारी की समझ पैदा कर लें और दूसरों को समझाइश देकर अपने आसपास अपने पूरे यत्न से इसे अमली-जामा पहनाएं।

कई जड़ी-बूटियां हमें पेड़ों से प्राप्त होती हैं। हर आदमी यदि यह संकल्प लें कि वह अपने हर जन्मदिन पर एक पेड़ लगाएगा और उसका संरक्षण करेगा तो तय मानिए कि जब वह 60 वर्ष का होगा तब प्रकृति उसे करोड़पति बना चुकी होगी। उसके 60 पेड़ों की कीमत लगभग 1 करोड़ रुपए की नकदी रकम से कम नहीं होगी।

यह मात्र हवाई उड़ान नहीं है वरन् आज से आने वाले 10 वर्ष में यह हकीकत सामने आ जाएगी यह मानते हुए कि इन 60 पेड़ों में 10 पेड़ सागवान, 10 पेड़ बरगद, 10 पेड़ आम और 5-5 पेड़ क्रमश: पीपल, नीम, कटहल, शीशम, इमली, आंवला के हों, जो कि असंभव नहीं है।


पौधारोपण परोक्षत: और प्रत्यक्षत: दोनों रूपों में इहलोक और परलोक सुधारने का सर्वथा सस्ता, सुलभ, सरल और सुंदर तरीका है। इसके माध्यम से आप देशसेवा, प्रकृति सेवा, समाजसेवा और मानवता व प्राणीमात्र की सेवा के साथ-साथ स्वयं की सेवा भी कर सकेंगे और आने वाली पीढ़ियों को पर्यावरण संरक्षण के अलावा प्राणी-मित्र और सामाजिक सरोकारों से जुड़े रहने के लिए संस्कारित भी करते रह सकेंगे।

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जिन व्यक्तियों के पास पौधारोपण हेतु खुद की जमीन नहीं है वे अन्य लोगों/संस्थाओं से जमीन लेकर साझेदारी में यह कार्य कर सकते हैं। ग्राम एवं नगर पंचायतों से उनकी पड़त जमीन या नगर निगमों से उनके सार्वजनिक बगीचों में पेड़ों की देखभाल और उनके संरक्षण-संवर्धन का कार्य करार के आधार पर लेकर भी यह कार्य कर सकते हैं। प्राइवेट संस्थानों, औद्योगिक इकाइयों से भी उनकी खाली-खुली पड़ी जमीनों को लेकर इस प्रकार के करार किए जा सकते हैं और इस सेवा के बदले मेवा कमाया जा सकता है।

वृक्ष बचा लिए तो पानी भी बचेगा, गर्मी से भी राहत मिलेगी तथापि पानी के संरक्षण के प्रति हम आज भी लापरवाह बने हुए हैं। विश्व में रेगिस्तान बढ़ रहे हैं, उन्हें रोकने के लिए पौधारोपण की महती आवश्यकता है। मगर इसके लिए शुरुआती तौर पर पानी का संरक्षण-संग्रहण किया जाना जरूरी है। जगह-जगह जल-संरचनाएं बनाना, वर्षा जल का पुनर्भरण, छोटे-छोटे नालों पर बंधान या रोक बनाना ता‍कि पानी बहने के बजाए जमीन में उतरे ताकि भूजल स्तर बढ़ सके, तभी बंजर जमीन पर हरियाली को साकार करने में हम तीव्रता से आगे बढ़ सकेंगे।


दरअसल, पानी की एक-एक बूंद का महत्व हमें इसराइल सरीखे देशों के निर्देशन में सीखना होगा। हमारे धर्म-शास्त्रों में कहा गया है कि- 'बूंद-बूंद से घट भरता है।' इसी को नए रूप में समझना-समझाना होगा कि 'बूंद-बूंद से घट भरता है'।

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आने वाले समय में पानी बिकेगा। बंद बोतल में पानी आज बिक रहा है, टैंकरों में पानी बिक रहा है। कई इलाकों में जिस किसान या आदमी के पास कुएं में भरपूर पानी होता है, वह एक सीजन (गर्मी) में 70-80 हजार रुपए पानी बेचकर हर माह कमा लेता है।

बड़े शहरों में 1 बाल्टी पानी 10 रुपए में आसानी से बिक जाता है अर्थात् एक-एक बूंद पानी की बचत आपके रुपए खर्च होने से बचाएगी यानी 'बूंद-बूंद से घट भरता है'। जितना भू-जल स्तर बढ़ेगा उतनी ही घरेलू पंपों और खेत के सिंचाई पंपों में बिजली की खपत में कमी आएगी, बिजली बिल में बचत होगी, पंपों की घिसाई कम होगी और रखरखाव के खर्चों में कटौती होगी तो अंतत: व्यर्थ पैसा खर्च होने से बचेगा।

कम समय में अधिक सिंचाई होना, अधिक पैदावार देगा और अधिक पैदावार का अर्थ अधिक कमाई होगा। हमारे प्राचीन रिवाजों में रसूखदार आदमी को इसीलिए पानीदार आदमी कहा जाता था; पानी प्रतिष्ठा का सूचक था, प्रतिष्ठा का सूचक है। हमें उसके संरक्षण-संवर्धन की प्रतिज्ञा लेनी होगी। सही मायने में हमें पानी को जीवनी-शक्ति के रूप में पुनर्प्रतिष्ठित करना होगा।

लू-लपट, गर्मी की झुलसन में हमने जाना है
धरती-पेड़-पानी का महत्व अब पहचाना है
आओ, फिर धरती को पहनाएं हरी चुनर-धानी
खेलें मिलकर गर्मी-धरती-पेड़-पानी

समाप्त

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