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कितना खतरनाक है 'सुपरबग'

-राम यादव

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स्वाइन फ्लू के बाद दुनिया में अब एक बार फिर एक नई महामारी का हौवा खड़ा किया जा रहा है। मीडिया वालों ने उसके रोगाणु को (जो इस बीच यूरोप और अमेरिका तक पहुँच गया है) महारोगाणु (सुपरबग या सुपर बैक्टीरिया) कहना शुरू कर दिया है। वैज्ञानिक उसे एनडीएम-1 कह रहे हैं और भारत की देन बता रहे हैं। शोर है कि उस पर रोगाणु-मारक एन्टीबायॉटिक दवाओं का कोई असर नहीं होता।

एनडीएम-1 प्रथमाक्षर संक्षेप है 'न्यू डेल्ही मेटैलो-बीटा-लैक्टामेज़ टाइप 1' का, जो एक विशेष एंज़ाइम है और जिसके आगे एन्टीबायॉटिक दवाएँ बेकार सिद्ध होती हैं। एन्ज़ाइम ऐसे प्रोटीनों को कहते हैं, जो शरीर में चयापचय (मेटाबॉलिज़्म) जैसी जैवरासायनिक क्रियाओं के समय उत्प्रेरक (कैटलिस्ट) का काम करते हैं।

एन्टीबायॉटिक ऐसे पदार्थ या यौगिक हैं, जो बैक्टीरिया को मार डालते हैं या उन्हें बढ़ने नहीं देते। उनका उपयोग बैक्टीरिया से होने वाली बीमारियों को ठीक करने में होता है।

एंटीबायॉटिक दवाएँ किसी प्राकृतिक पदार्थ पर आधारित हो सकती हैं, जैसे पेनिसिलीन पर आधारित बीटा-लैक्टैम्स हैं। प्रकृति और रासायशास्त्र का मेल हो सकती हैं, जैसेकि सेफ़ैलोस्पोरीन और कार्बापेनेम्स वर्ग की दवाएँ हैं। वे सल्फ़ोनामाइड्स और क़िनोलोन्स की तरह पूरी तरह रासायनिक हो सकती हैं या पूरी तरह जीवधारियों से प्राप्त सामग्री से बनी हो सकती हैं, जैसे अमाइनोग्लाइकोसाइड्स।

यूरोप में खलबली
भारत में तो शांति है लेकिन अगस्त के मध्य में ब्रिटिश पत्रिका लैंसेट इन्फ़ेक्शस डिज़ीज़ में एक लेख छपने और उसके तुरंत बाद बेल्जियम में एक व्यक्ति की मृत्यु हो जाने से यूरोप में खलबली मच गई है। अब तक ज्ञात पहला मृतक पाकिस्तान से आया था। वहाँ एक सड़क दुर्घटना के बाद पहले पाकिस्तान में और फिर बेल्जियम में अस्पताल में भर्ती था। उसकी मृत्यु एक ऐसे बैक्टीरिया का संक्रमण लगने से हुई बताई जा रही है, जिसमें एन्टीबायॉटिक दवाओं को निरस्त कर देने वाले एनडीएम-1 एन्ज़ाइम के सारे गुण छिपे थे।

लैंसेट वाले लेख में कहा गया है कि अगस्त के मध्य तक एनडीएम-1 के संक्रमण के ब्रिटेन में 37 मामले देखने में आए हैं। भारत और पाकिस्तान में कुल मिलाकर 143 मामले हुए हैं। इस बीच पता चला है कि जर्मनी, नीदरलैंड और अमेरिका में भी कई मामले सामने आए हैं पर कोई मृत्यु नहीं हुई है। लगभग सभी मामले ऐसे लोगों के बताए जाते हैं, जो भारत या पाकिस्तान के किसी अस्पताल में किसी इलाज़ के बाद इन देशों में लौटे हैं।

पहला रोगी
इस तरह का पहला रोगी स्वीडन का नागरिक था। वह दिसंबर 2009 में नई दिल्ली में बीमार पड़ा था। वहाँ अस्पताल में रहा। ठीक नहीं हुआ। स्वीडन लौटने के बाद उसके शरीर में मिले रोगाणुओं में एंटीबायॉटिक दवाओं को बेकार बना देने वाले एक नए एन्ज़ाइम का पता चला। वह व्यक्ति क्योंकि नई दिल्ली से आया था, इसीलिए इस एंज़ाइम का नामकरण नई दिल्ली के नाम पर एनडीएम-1 कर दिया गया।

संसर्गजन्य बीमारियों पर शोध और नियंत्रण के जर्मन संस्थान बर्लिन स्थित रोबर्ट कोख़ इंस्टीट्यूट में अस्पताली संक्रमण बीमारियों वाले विभाग के प्रमुख वोल्फ़गांग विटे का कहना है कि इस तरह के उच्च प्रतिरोधी रोगाणु जर्मनी में अब तक चार रोगियों में मिले हैं। सभी एकल मामले हैं। संक्रमण की कोई लहर अभी तक नहीं है।

नया बैक्टीरिया नहीं
जर्मनी के विशेषज्ञों का यह भी कहना है कि एनडीएम-1 कोई नया बैक्टीरिया नहीं है, बल्कि बैक्टीरिया के पहले से ही ज्ञात कई वर्गों में घर कर रहा एक ऐसा उत्परिवर्तन (म्यूटेशन) है, जो उन्हें बहुत सारी एंटीबायॉटिक दवाओं का प्रतिरोधी बना देता है। जिन बैक्टीरिया में वह घर कर रहा है, वे मूल रूप से ऐसे एंटेरो-बैक्टीरिया हैं, जो हमारी आँतों में रहते हैं और पाचन तथा उत्सर्जन तंत्र की बीमारियाँ पैदा कर सकते हैं।

कुछ ऐसे भी हैं, जो न्यूमोनिया जैसी फेफड़े की बीमारियाँ भी पैदा कर सकते हैं या खून में जहर (सेप्सिस) फैला सकते हैं। वे अलग-अलग बैक्टीरिया हैं, लेकिन उनके बीच की सबसे सामान्य विशेषता है एक खास जीन, जो बैक्टीरियाजन्य बीमारियों से लड़ने वाली एंटीबायॉटिक दवाओं की काट कर देने वाला एंज़ाइम पैदा कर इन दवाओं को बेअसर बना देता है।

वैज्ञानिकों की चेतावनी
रोगाणु वैज्ञानिक चेतावनी दे रहे हैं कि यह 'प्रतिरोधी' जीन दो कारणों से बहुत ही खतरनाक बन सकता है। वह बैक्टीरिया को न केवल दवा-प्रतिरोधी बना देता है, बल्कि उसके क्रोमोसोम के एक ऐसे हिस्से पर रहता है, जो अन्य बैक्टीरिया के साथ भी जीनों का खूब आदान-प्रदान करता है, उनके प्रतिरोधी गुणों को अपना सकता है या अपने गुण उन्हें दे सकता है।

मई 2010 में ऐसा ही एक मामला ब्रिटेन में देखने में आया। भारतीय मूल का एक व्यक्ति, जो डेढ़ साल पहले भारत गया था और वहाँ डायलिसिस करवाई थी, एनडीएम-1 वाले ई.कोली बैक्टीरिया से संक्रमित हो गया था। शुरू-शुरू में तो इस बैक्टीरिया पर किसी एंटीबायॉटिक का असर नहीं हो रहा था, लेकिन बाद में देखा गया कि वह टाइगेसिलीन और कोलिस्टीन के आगे पस्त हो जाता है।

कोलिस्टीन एक काफ़ी पुराना बैक्टीरिया-मारक है, जबकि टाइगेसिलीन एक अपेक्षाकृत नई दवा है। इस तरह कह सकते हैं कि एनडीएम-1 जीन का होना किसी बैक्टीरिया को दुर्भेद्य(मुश्किल) तो बना देता है, पर पूरी तरह अजेय नहीं बनाता।

दवा प्रतिरोधी क्षमता क्यों
प्रश्न उठता है कि बैक्टीरिया में दवा प्रतिरोधी क्षमता क्यों और कैसे बढ़ रही है? बॉन के डॉ. योज़ेफ़ विंकलर कहते हैं, 'डार्विन का विकासवाद यहाँ भी लागू होता है। परिवर्तन और विकास द्वारा हर जीवधारी नयी परिस्थितियों का सामना करने और जीवत रहने का प्रयास करता है। बैक्टीरिया भी जीवधारी हैं, यही करते हैं। इसीलिए वे पेनिसिलीन और एरिथ्रोमाइसिन जैसी आरंभिक एंटीबायॉटिक दवाओं के अभ्यस्त बन गये हैं, उन्हें झेल जाते हैं। हर बैक्टीरिया झेल जाने की अपनी प्रतिरोध क्षमता अपनी नई पीढ़ी को भी प्रदान करता है।'

होता यह है कि हर बैक्टीरिया का क्रोमोसोम हर एंटीबायॉटिक दवा के प्रोटीन अणुओं को समझने-बूझने और उनकी काट निकालने की कोशिश करता है। सफल हो जाने पर इस गुर को अपने भीतर एक नये जीन के तौर पर परिरक्षित कर लेता है और पीढ़ी-दर-पीढ़ी आगे बढ़ाता है। वह किसी बाहरी जीनोम या क्रोमोसोम से भी अपने काम का कोई जीन चुरा सकता है या किसी दूसरे बैक्टीरिया के साथ अदल-बदल के द्वारा प्राप्त कर सकता है। क्षयरोग (टीबी) की आजकल देखने में आ रही वापसी क्षयरोग के बैक्टीरिया में आ गई इसी प्रतिरोध क्षमता का फल है।

अस्पतालों में सबसे अधिक रोगाणु
जहाँ तक आपसी आदान-प्रदान द्वारा बैक्टीरिया की प्रतिरोध क्षमता बढ़ने का प्रश्न है, यह सबसे अधिक संभवत: अस्पतालों में होता है, क्योंकि वहीं हर तरह के रोगाणु आपस में मिल सकते हैं। जर्मनी की सबसे प्रमुख सरकारी स्वास्थ्य बीमा कंपनी बार्मर का अनुमान है कि अकेले जर्मनी के अस्पतालों में हर साल पाँच लाख लोगों को नए संक्रमण लगते हैं। गैर सरकारी बीमा कंपनी अलियांत्स इस संख्या को पाँच से दस लाख के बीच मानती है। जब जर्मनी जैसे संसार के एक उच्च विकसित देश का यह हाल है, तो भारत जैसे देशों के हाल की कल्पना करना कठिन नहीं होना चाहिए।

सार्वजनिक शौचालय, गंदे पानी की नालियाँ और सीवर वे दूसरी जगहें हैं, जहाँ तरह-तरह के बैक्टीरिया अपने जीनों का आदान-प्रदान कर अपनी प्रतिरोध क्षमता बढ़ा सकते हैं।

डॉक्टर और रोगी भी दोषी
विशेषज्ञों का अब भी यही मानना है कि रोगजनक बैक्टीरिया की दवा-प्रतिरोधी क्षमता सबसे अधिक डॉक्टर और रोगी ही बढ़ा रहे हैं। डॉक्टर बिना बहुत सोचे-विचारे हर छोटी-बड़ी बीमारी के लिए एंटीबायॉटिक दवाएँ लिख कर और रोगी उनका मनमाना या लापरवाही भरा इस्तेमाल करके। उनका कहना है कि डॉक्टरों को यथासंभव एंटीबायॉटिक दवाएँ नहीं लिखनी चाहिए। लिखते हैं तो, नपीतुली मात्रा में लिखें। एकसाथ कई दवाएँ न लिखें।

यह भी लिखें कि ठीक कितने-कितने घंटों के अंतर पर दवा लेनी है, न कि सिर्फ़ दिन में दो, तीन या चार बार। रोगी को बताएँ कि दवा के गलत, बहुत अधिक या अपर्याप्त इस्तेमाल से क्या अवांछित प्रभाव हो सकते हैं। आराम मिलते ही दवा लेना छोड़ देने पर या बताए समय के बाद भी दवा लेते रहने पर क्या नुकसान हो सकते हैं।

रोगाणुओं की प्रतिरोध क्षमता बढ़ने के पीछे मुख्य कारण यही बताया जाता है कि रोगी और डॉक्टर इन दवाओं को लेने के नियमों का गंभीरता से पालन नहीं करते। रोगाणुओं पर दबाव बहुत बढ़ाने से यानी एंटीबायॉटिक दवाओं का बहुत अधिक सेवन करने से या उन्हें लेने का कोर्स पूरा न करने से इन रोगाणुओं को दवाओं की काट निकालने का मौका मिल जाता है।

इन्हीं सब कारणों से जर्मनी जैसे विकसित देशों में डॉक्टर एंटीबायॉटिक दवाएँ केवल तब लिखते हैं, जब दूसरा कोई विकल्प नहीं सूझता। शायद इसीलिए एनडीएम-1 जीन वाला कोई बैक्टीरिया इन देशों में नहीं बन सका।
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लेखक परिचय
उत्तर प्रदेश के आज़मगढ़ में जन्म। मुंबई (बंबई) विश्वविद्यालय से बीएससी और जर्मनी के बर्लिन तथा कोलोन विश्वविद्यालयों से मैनेजमेंट की डिग्री। 1970 के दशक से जर्मनी से हिंदी रेडियो प्रसारण में संलग्न। दिनमान, रविवार और धर्मयुग जैसी पत्रिकाओं तथा नवभारत टाइम्स के लिए लेखन। 2008 तक जर्मन रेडियो डॉयचे वैले -हिंदी सेवा प्रमुख, अगस्त 2010 से सेवानिवृत्त।

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