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आहार में शामिल हो भाजियाँ

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-डॉ. किशोर पवा

वर्तमान युग उपभोक्तावादी संस्कृति, डिब्बाबंद खाद्य पदार्थों और फास्ट फूड का है। फास्ट फूड में वसा की मात्रा ज्यादा होती है। साथ ही डिब्बाबंद खाद्य पदार्थों के परीक्षण के लिए जो रसायन उपयोग में लाए जाते हैं, वे भी हानिकारक होते हैं। ताजा तो ताजा ही होता है और बासी बासी। भला बोतल में बंद पेय पदार्थों की तुलना में नींबू के ताजा शर्बत से कैसे हो सकती है? हाँ, यह जरूर है कि किसान के इस ताजा उत्पाद का विज्ञापन नहीं होता। पेप्सी और कोका कोला का विज्ञापन तो खूब होता है परंतु 'नीरा' का नहीं। यही हाल इन दिनों कुछ भाजियों (हरी पत्तीदार सब्जियों) का हो रहा है। आधुनिकता के चलते हमारे भोजन से ये दिनों-दिन गायब होती जा रही हैं।

भाजी के नाम पर आजकल अधिकांश लोग पालक, मेथी या ज्यादा से ज्यादा चोलाई ही खरीदते हैं जबकि कुछ 15-20 वर्षों पहले सब्जी बाजार में तरह-तरह की भाजियाँ मिलती थीं, जैसे कुल्फा, बथुआ, बथवी, खरतुआ, तरह-तरह की चोलाई आदि। किसान इनके अतिरिक्त कई अन्य पौधों को भी भाजी के रूप में इस्तेमाल करते थे। ये भाजियाँ विटामिन और खनिज लवणों से भरपूर होती हैं। इनमें उपस्थित हरा पदार्थ खून बढ़ाता है और पीले केरोटीनाइड एंटीऑक्सीडेंटस का काम करते हैं। इन सबके अतिरिक्त सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि ये सभी भाजियाँ प्राकृतिक रेशों की बेहतरीन स्रोत हैं। स्वास्थ्य रक्षा में इन रेशों की भूमिका बड़ी महत्वपूर्ण होती सिद्ध हो रही है परंतु खानपान की पश्चिमी संस्कृति की घुसपैठ के चलते हमारे भोजन में प्राकृतिक रेशों की कमी होती जा रही है।

जिन पौधों का भाजियों के रूप में ग्रामीणजन उपयोग करते हैं, उन्हें कृषि विशेषज्ञ खरपतवार की श्रेणी में रखते हैं, जैसे बथुआ (चिनोपोडियम), चोलाई (एमेरेंथस), कनकव्वा (कोमेलाइना), चिरगोटी (सोलेनम नायग्रम), करड़ (वालूट्रेला), कुंजरी (डायजीरा)। ये सभी तथाकथित खरपतवार आज भी ग्रामीण अंचलों में हाट बाजारों के दिन बिकने आती हैं परंतु इन्हें पहचानने वाले और खरीददार दिनों-दिन कम होते जा रहे हैं। इधर बाजार में विटामिन, खनिज, पोषक तत्व और प्राकृतिक रेशों के ये स्रोत गायब होते जा रहे हैं और उधर पेट और आँतों के रोग बढ़ते जा रहे हैं।

पश्चिमी देशों में बढ़ते रोगों के कारणों की खोज के दौरान स्पष्ट रूप से यह बात सामने आई है कि उनके आहार में प्राकृतिक रेशों की कमी इसका एक खास कारण है। अध्ययनों से पता चला है कि रेशेदार पदार्थों के समुचित उपयोग से बड़ी आँत के रोग, जैसे बवासीर, हर्निया व हृदय रोग, मोटापा व मधुमेह जैसे कष्टप्रद रोगों में कमी आती है। ऐसे लोगों को, जिनके आहार में रेशेदार पदार्थ कम होते हैं, ये रोग ज्यादा होते हैं।


भोजन में रेशों का महत्व जानकर आजकल पाश्चात्य देशों में परिष्कृत खाद्य पदार्थों में जान-बूझकर रेशेयुक्त पदार्थ मिलाए जाते हैं। यहाँ तक कि इसबगोल की भूसी भी, जिसका हम सदियों से कब्ज हटाने के लिए उपयोग करते रहे हैं। कुछ वर्षों पहले तक हर कहीं बरसात में उग आने वाले पौधे पुवाड़ की नन्ही कोंपलों की मूँग की दाल के साथ सब्जी बनाई जाती थी। इससे रेशा तो मिलता ही था, यह रोगनाशक भी थी। घुटने के दर्द की यह एक बढ़िया औषधि है। गठियावाव आदि रोगों में आज भी इसके मेथीदाने जैसे बीजों की चाय बनाकर पीने की सलाह दी जाती है।

पुवाड़ की कोंपल की तरह चने की नई-नई पत्तियों की भाजी भी बनती है। पहले तो इन्हें तोड़कर, सुखाकर घर-घर में रखा जाता था। गर्मियों में जब हरी सब्जियों की कमी होती थी तब इसे पानी में गलाकर प्याज के साथ इसका उपयोग किया जाता था। चने के पत्तों में थोड़ा खार ज्यादा होने के कारण इसका स्वाद एकदम सबसे अलग होता है। चवले के पौधे का आगे का हिस्सा, जिसे 'डीरे' कहते हैं, पुवाड़ हो या ये सब हमारे भोजन में प्राकृतिक रेशों के उम्दा सस्ते, सुंदर और सदियों से आजमाए हुए स्रोत हैं। प्राकृतिक रेशे वास्तव में वनस्पति कोशिकाओं के अपचनीय अवशेष हैं। वास्तव में कोशिकाओं के कंकाल हैं, जिसे कोशाभित्ती कहते हैं।

रेशेदार भोजन के सेवन से आँतों में सूजन, बवासीर तथा आँतों के कैंसर से बचाव होता है। इस भोजन से न सिर्फ पेट के रोगों में फायदा होता है बल्कि अन्य रोगों, जैसे मोटापा, हृदय रोग तथा मधुमेह में भी कमी देखी गई है।

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