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आज और आज से पहले

राजकमल प्रकाशन

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पुस्तक के बारे मे
आज और आज से पहले कुँवर नारायण की हिन्दी परिदृश्य पर पिछले चार दशकों से सक्रिय बने रहने का साक्ष्य ही नहीं,उनकी दृष्टि की उदारता,उनकी रूचि की पारदर्शिता और उनके व्यापक फलक का प्रमाण है। प्रेमचंद, यशपाल, भगवती चरण वर्मा, हजारी प्रसाद द्विवेदी से लेकर अज्ञेय, शमशेर, नेमिचन्द्र जैन, मुक्तिबोध, रघुबीर सहाय, निर्मल वर्मा, श्रीकांत वर्मा, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, श्री लाल शुक्ल, अशोक वाजपेयी तक उनके दृष्टि-पथ में आते हैं।

उनमें से हर एक के बारे में उनके पास कुछ-न-कुछ गंभीर और सार्थक कहने को रहा है। इसी तरह कविता, उपन्यास, कहानी,आलोचना, एवं भाषा आदि सभी पर उनकी नज़र जाती रही है।

पुस्तक के चुनिंदा अं
प्रत्येक युग का एक विशिष्ट यथार्थ-बोध होता है, जो न केवल अपने युग को नई तरह से सोचता-समझता है बल्कि अतीत का भी पुनर्मूल्यांकन उसी के आधार पर करता है। इसी यथार्थ-बोध पर उस युग का रचनात्मक स्वभाव(क्रिएटिव टेम्पर) निर्भर करता है। द्विवेदी युग, छायावाद, प्रगतिवाद और प्रयोगवाद, ‍भिन्न साहित्यिक युग है क्योंकि उनका यथार्थ-बोध एक-दूसरे से भिन्न है।

यद्यपि काल की दृष्टि से वे लगभग 50 वर्षों से अधिक को नहीं समेटते, लेकिन रीतिकाल 200 वर्ष लंबा होते हुए भी एक ही साहित्यिक युग कहलाता है।क्योंकि इस बीच उसका यथार्थ बोध नहीं बदला।
(हिन्दी आलोचना और रचनात्मक साहित्य' से)
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आज की बहुत सी कविता सीधे राजनीतिक प्रतिक्रिया की कविता नहीं है। यद्यपि वह राजनीति निरपेक्ष भी नहीं है।मूल रूप से वह जिंदगी के उन पक्षों के चित्रण की, कभी सजीव,कभी प्रतीकात्मक-कविता है। ‍जिसमें एक खास संदर्भ में राजनीति और व्यवस्था को लेकर असंतोष, आक्रोश या टिप्पणी निहित होती है। इस तरह की कविताओं में कुछ बहुत अच्छी कविताएँ भी सामने आई है। कुछ बिल्कुल सतही और औपचारिक सी।
(अमानवीयकरण के खिलाफ से)
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प्रेमचंद ने अपनी कहानियों और उपन्यासों में जिन सामाजिक बुराइयों, अनैतिकताओं, अशिक्षा, अंधविश्वास, आर्थिक विषमताओं तथा आत्मिक और भौतिक स्तर शोषण आदि की समस्याओं को उठाया है। वे अगर हमारे समाज में आज भी वैसी ही बनी हुई है तो यह हमारे लिए एक शर्म की बात है। उन्हें अब तक अप्रासंगिक हो जाना चाहिए था।

जैसा कि बालज़क, टॉल्सटॉय, दोस्तावस्की के समाजों में बहुत कुछ हो चुकी है। लेकिन यह एक फख्र की बात होगी कि प्रेमचंद की साहित्यिकता कभी भ‍ी अप्रासंगिक न हो। वह हमेशा उसी क्लासिकी स्तर पर बनी रहे जिस पर हम संसार के महानतम साहित्यकारों को रखते-परखते हैं।
('प्रेमचंद की साहित्यिक मान्यताएँ'से)

समीक्षकीय टिप्पणी
यह बात अचरज की है कि यह कुँवर नारायण की पहली आलोचनात्मक पुस्तक है। बिना किसी पुस्तक के दशकों तक अपनी आलोचनात्मक उपस्थिति बनाए रख सके हैं तो इसलिए कि उनका आलोचनात्मक लेखन लगातार धारदार और जिम्मेदार रहा है।

आज और आज से पहले
आलोचनात्मक निबंध संग्रह
लेखक: कुँवर नारायण
प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन

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