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खट्‍टर काका : चुस्त‍-चुटीली रचनाओं का संग्रह

राजकमल प्रकाशन

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पुस्तक के बारे में : धर्म, दर्शन और इतिहास, पुराण के अस्वस्थ, लोकविरोधी प्रसंगों की दिलचस्प लेकिन कड़ी आलोचना प्रस्तुत करने वाली, हरिमोहन झा की बहुप्रशंसित उल्लेखनीय व्यंग्य कृति है-खट्‍टर काका। लगभग पचास वर्ष पूर्व सर्वप्रथम इसका प्रकाशन मैथिली में हुआ था। धर्मयुग, कहानी आदि पत्रिकाओं में इसके अंश छपे और प्रसिद्धि मिली। व्यंग्य की अद्‍भुत और अद्वितीय शैली है 'खट्‍टर काका' की, जो पाठकों को गुदगुदाती भी है और कचोटती भी है।

पुस्तक के चुनिंदा अंश
खट्‍टर काका के होंठों पर मुस्कान आ गई। बोले - श्रीकृष्ण अर्जन को तो यह उपदेश देते हैं कि क्षत्रिय के लिए राज छोड़कर भाग जाने से मरण अच्‍छा है और स्वयं जो रण छोड़कर भागे सो अभी तक रणछोड़ कहला रहे हैं।

इसी को कहते हैं - परोपदेशे पांडित्यम्। लेकिन अर्जुन को इतनी बुद्धि कहाँ कि जवाब दे सकते। गटगट सुनते गए और जब सबकुछ सुनकर भी अर्जुन के पल्ले कुछ नहीं पड़ा। तब कृष्ण ने अपना विकराल रूप दिखाकर अर्जुन को डरा दिया। यदि उस तरह नहीं समझोगे तो इस तरह समझो।'
('गीता' से)
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मुझे चकित देखकर खट्‍टर काका बोल उठे - हँसी नहीं करता हूँ। राजा लोगों को जीवन में दो ही वस्तुओं से प्रयोजन था। पाचक और मोदक। भोजन शक्ति को उद्दीप्त करने के लिए क्षुधाग्नि-संदीपन। योग शक्ति को उद्दीप्त करने के लिए कामाग्नि-संदीपन। राजा लोग दिन भर पड़े-पड़े दोनों अर्थों में कुमारिकासव पान किया करते थे। इतना ही तो काम था। रोज-रोज वही दिनचर्या। कहाँ तक सहते? इसी से बेचारे वैद्यगण रात-दिन वाजीकरण के पीछे बेहाल थे। एक से एक स्तंभन वटी, वानरी गुटिका, कामिनी-विद्रावण! इन्हीं बातों में रिसर्च की बुद्धि खर्च होने लगी।
('आयुर्वेद' से)
***
मैं इसका मतलब यों लगाता हूँ। सतयुग में हमारे पूर्वज स्वच्छंद विचरते थे। यायावरों की तरह। त्रेता में थोड़ी स्थिरता आने लगी। राजा जनक प्रभृति हल जोतने लगे। मिट्‍टी से अन्नरूपी सीता निकलने लगी। लोग घर बनाकर रहने लगे। एक स्थान में पैर जमने लगा। द्वापर में लोग और सुभ्यस्त हुए। सुख के साधन बढ़े। लोग आराम में आकर ऊँघने लगे। और कलियुग में तो विलासिताओं की सीमा ही नहीं। लोग निश्चिंत होकर सो रहे हैं। इसी तरह सभ्यता का क्रमिक विकास हुआ है।
('प्राचीन संस्कृति' से)

समीक्षकीय टिप्पणी
एक अनुपम कृति है खट्‍टर काका। 'खट्‍टर काका' जैसा चरित्र संभवत: विरल ही होगा। जो बातें हँसी-हँसी में खट्‍टर काका बोल जाते हैं उसे प्रमाणित किए बिना नहीं छोड़ते। गीता को अपने तर्कजाल में उलझाकर उसे भूलभुलैया में डाल देना उनका प्रिय कौ‍तुक है। वह तस्वीर का रुख यों पलट देते हैं कि सारे परिप्रेक्ष्य ही बदल जाते हैं। रामायण, महाभारत, गीता, वेद, वेदांत, पुराण सभी उलट जाते हैं। बड़े-बड़े दिग्गज चरित्र बौने-विद्रूप बन जाते हैं। सिद्धांतवादी सनकी सिद्ध होते हैं और जीवन मु‍क्त मिट्‍टी के देवतागण गोबर गणेश प्रतीत होते हैं। धर्मराज,अधर्मराज और सत्यनारायण, कु-नारायण भासित होते हैं। आदर्शों के चित्र कार्टून जैसे दृष्टिगोचर होते हैं।

व्यंग्य : खट्‍टर काका
लेखक : हरिमोहन झा
प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन
पृष्ठ : 200
मू्ल्य : 250 रुप

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