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मैं कविता का एहसानमंद हूँ

निर्मला भुराड़िया

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'सच बोलकर संभव नहीं था/सच को बताना/ इसीलिए मैंने चुना झूठ का रास्ता/कविताओं का...' ये सिर्फ पद्य पंक्तियाँ नहीं हैं, एक पुस्तक की भूमिका के वाक्य हैं। कविता-पुस्तक की एक अपने ही किस्म की भूमिका जो कविता ही कविता में लिखी गई है।

'थोड़ा कुछ कविता ही सी जुबानी' यह है कवि चंद्रकांत देवताले के कविता संग्रह 'जहाँ थोड़ा-सा सूर्योदय होगा' की भूमिका। इस पुस्तक में चंद्रकांत देवताले की चयनित कविताएँ दी गई हैं, जिनका संचय कवि के अब तक प्रकाशित संग्रहों और अप्रकाशित कविताओं से किया गया है।

देवताले की कविताएँ एक वृहद-दायरा समेटती हैं। इनमें भूख, वेदना, दंगा, राजनीति है तो स्त्री की पीड़ा और स्वयं के भीतर के दर्द भी। इनमें माँ, पिता, बेटियाँ जैसे संबंधों की छाँव है तो सुख-दुःख का जुड़वा चेहरा जैसी कविताएँ भी।

साहब का बबुआ चीं करता है/और तुम सब दौड़ते हो/कन्हैया, मोती, मांगू, उदयराम/तुम सब चारों कोनों से दौड़कर आते हो/अपने हाथ का काम छोड़कर/सुलगी हुई आधी बीड़ी फेंककर...तुम्हारे घर में भी तो हैं तुम्हारे गुलाम जादे...अपनी जोरू/ अपने बच्चे/ तुमको दुश्मन क्यों लगते हैं।

कवि का यह तंज है भारतीय समाज के गरीब-अमीर और ऊँच-नीच की खाई पर। जो यह बताना चाहता है कि सेवकों को समाज ने दास-मानसिकता से जकड़ रखा है।

इन कविताओं में आमजन की पिसाई है। उनका संघर्ष व उनके प्रति संवेदना है तो/अपनी स्वयं की स्मृतियाँ और स्वप्न भी हैं। देवतालेजी की कविताओं में 'माँ' तो बहुत ही अद्भुत ढंग से आती है जो स्वयं की माँ से विराट जगत जननी बन जाती है। ममता का फाहा और इंसान का दुःख हरने की एक 'माँ' की ताकत इन कविताओं में विस्मयकारी ढंग से आती है।

  इन कविताओं में आमजन की पिसाई है। उनका संघर्ष व उनके प्रति संवेदना है तो/अपनी स्वयं की स्मृतियाँ और स्वप्न भी हैं। देवतालेजी की कविताओं में 'माँ' तो बहुत ही अद्भुत ढंग से आती है जो स्वयं की माँ से विराट जगत जननी बन जाती है।      
अपने से भिन्न पहली बार/जब माँ को पहचाना था उसने/तब वह लोटे में जलते हुए कोयले भर रही थी/ वह पानी की जगह आग क्यों भर रही है/समझ में आया उसकी/ जब वह लोटे को पिता के कोट पर फेरने लगी/ सलवटें अभी भी मौजूद हैं कितनी ही/चेहरे पर, पेट पर, धरती की देह पर/अब आग किस-किस में भरे वह/एक विराट कड़क लोहा करे कहाँ-कहाँ?

ये कविताएँ विन्यास में जटिल नहीं हैं फिर शिल्प में सधी हुई और भावना में गहरी हैं। इनमें आम जिंदगी है जो हर आम और खास के लिए एक जैसी है। खुद कवि के शब्दों में कहें तो-'यदि मेरी कविता साधारण है/तो साधारण लोगों के लिए भी/इसमें बुरा क्या, मैं कौन खास...!

२४० पेज की इस पुस्तक में कई कविताएँ हैं बाई दरद ले, चोंच से पेड़ उगाती चिड़िया, बालम ककड़ी बेचने वाली, पुराने घरों की बिल्लियाँ, बेटी के घर से लौटना जैसी कविताएँ हैं तो कुछ इधर लिखी कविताएँ देवपुत्रों से हुई मुलाकात, एक नींबू के पीछे, मेरी किस्मत में यही अच्छा रहा जैसी कविताएँ भी।

सभी कविताओं में कवि ने खुलकर अपने समय का सत्य कहा है। उन्हीं के शब्दों में, 'जबड़े तो आदमी के मांस में/गढ़ा रहे हैं दाँत/ यदि उन पर चोट होती है कविता/तो मैं कविता का एहसानमंद हूँ...।'

पुस्तक : जहाँ थोड़ा सा सूर्योदय होगा
लेखक : चंद्रकांत देवताले
प्रकाशक : संवाद प्रकाशन , आई-499, शास्त्री नगर , मेरठ (उप्र)
मूल्य : 200 रु

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