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आज भाषा का मोह टूट गया है

पत्रकारिता की तीन हस्तियों पर नंदनजी के विचार

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अज्ञेय जी के साथ मेरा किसी भी रूप में कोई व्यावसायिक संबंध यूँ तो कभी नहीं रहा लेकिन उनसे अच्छी पहचान जरूर रही। मैंने उनके साथ काम नहीं किया लेकिन उनकी कार्यशैली विशिष्ट थी और संपादन बेहतरीन। संपादकीय गरिमा को स्थापित करने में किसी सीमा तक उनका सबसे अधिक योगदान रहा है।

अपनी संपादकीय कला-कौशल के कारण ही उन्होंने 'दिनमान' को 'टाइम्स' और 'न्यूज वीक' जैसी छवि प्रदान की। 'एवरी मैन' और 'वॉक' जैसी अंग्रेजी पत्रिकाओं का संपादन करने वाले अज्ञेय का अनेक भाषाओं पर अधिकार था। हिंदी और अंग्रेजी पर तो विशेष रूप से।

यही कारण है कि उन्होंने अनुवाद के अनेक कार्य किए। न सिर्फ अपनी रचनाओं के बल्कि दूसरों की रचनाओं, प्रतिष्ठित क्लासिकल रचनाओं और समकालीन सर्वश्रेष्ठ कृतियों का उन्होंने अनुवाद किया। उनकी रचनात्मक ऊर्जा दर्शाने के लिए यह जानना जरूरी है। एक बार मैं उनसे एक लेख लेने पहुँचा था तो उन्होंने कहा कि अभी मैंने लिख तो लिया है पर अच्छी तरह संपादित नहीं है। जब मैंने कहा कि मैं उसे देख लूँगा तो उन्होंने कहा कि लेखकों को अपना लेख कॉमा और फुलस्टॉप के साथ अच्छी तरह से संपादित कर ही संपादक के पास भेजना चाहिए।

फिर यह उनकी प्रतिभा का ही कमाल था कि उन्होंने हिंदी की नई कविता धारा को मोड़ कर रख दिया। पश्चिमी विचारधारा को यहाँ स्थापित करने में उनकी अभूतपूर्व भूमिका रही है। नई कविता की पूरी विचारधारा उन्होंने ही विकसित की। जाहिर इस कोटि का ज्ञान रखने वाले असीम प्रतिभा के धनी और अपनी मान्यताओं को लेकर सचेत व्यक्ति ने जो पत्रकारिता को दिशा दी उसने पाठकों के ऊपर एक सचेतन प्रभाव छोड़ा।

एक बार मनोहरश्याम जोशी अज्ञेय जी से मिलने जा रहे थे मुझे भी साथ चलने को कहा। अज्ञेय जी उनका अपने पत्र के लिए चुनाव करना चाह रहे थे। मुझे याद आता है कि अज्ञेय जी ने जोशी जी को कहा, 'मैं आपके खिलाफ षड्यंत्र कर रहा हूँ।' इस पर जोशी जी की प्रतिक्रिया थी, 'यदि आप ऐसा कर रहे हैं तो उस षड्यंत्र में मैं भी खुद को शामिल करता हूँ।' तो यह सम्मान का भाव था अज्ञेय जी के प्रति समकालीन लेखकों में! यह वाकया अज्ञेय और मनोहर श्याम जोशी दोनों की ही विशिष्टताओं को स्पष्ट करने में मदद करता है।

जहाँ तक जोशी जी का सवाल है तो वे बेहद आकर्षक लेखन के धनी थे। फीचर लेखन में उनका योगदान सदैव याद रखा जाएगा। उन्हीं के समय से फीचर लेखन ने खूब गरिमा पाई। उस समय की पत्रकारिता के एक गंभीर और पेशे के प्रति बेहद ईमानदार संपादक राजेंद्र माथुर हुए। उन्होंने अंग्रेजी में पढ़ाई की थी लेकिन हिंदी के प्रति व्यापक प्रेम भाव की वजह से हिंदी पत्रकारिता से जुड़े । उन्होंने 'नवभारत टाइम्स' और 'नईदुनिया' का संपादन करते हुए इस कार्य को जो गरिमा प्रदान की उसका कोई सानी नहीं नजर आता। उन्होंने संपादकीय को नई दिशा दी। उन्हीं के नेतृत्व में नवभारत टाइम्स आमजन के साथ-साथ आभिजात्य लोगों का अखबार बना।

इन लोगों की पत्रकारिता और उनके समय के परिप्रेक्ष्य में जब वर्तमान को देखता हूँ तो पाता हूँ कि आज भाषा का मोह टूट गया है। उस जमाने में अंग्रेजी के शब्दों के प्रयोग नहीं हुआ करते थे पर आज तो शीर्षकों तक में अंग्रेजी आ जाती है। दूसरी बात यह है कि आज जो कॉन्वेंट से पढ़े-लिखे लड़के पत्रकारिता में आ रहे हैं उनमें हिंदी भाषा के प्रति वह निष्ठा नहीं रही जो पहले के अंग्रेजी पढ़े-लिखे संपादकों तक में हिंदी के प्रति हुआ करती थी। फिर एक बड़ी समस्या यह है कि आज जब बच्चे किन्हीं अन्य क्षेत्रों में राह नहीं तलाश पाते वह मजबूरन यहाँ आते हैं। यहाँ रहते हुए भी कुछ और मिले तो वह करें। मौका मिले तो अंगरेजी में जाना ज्यादा पसंद करेंगे।

ऐसा नहीं था कि राजेंद्र माथुर सरीखे संपादकों पर सर्कुलेशन का दबाव नहीं था लेकिन उन्होंने समझौता किए बगैर आगे बढ़ने की राह सफलतापूर्वक निकाली। जिस कौशल को मैं नमन करता हूँ।

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