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जिंदगी से गया 'एक्शन'

लिखने में बढ़-चढ़कर आया

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उस दिन स्कूल के मैदान में झड़प हो गई, बलवीर ने टखने में हॉकी मारी तो मैंने पलटकर कंधे का निशाना बनाया। घर आकर बताया, नया जूता पहनने से टखने में मोच आ गई है। सिंकाई, मालिश और आधे डॉक्टरों, आधे देसी इलाजों के बीच पाँव फूलता चला जाता है

कथाकार राजेन्द्र यादव की एक पुस्तक है 'मुड़-मुड़ के देखता हूँ...।' जैसा कि पुस्तक के शीर्षक से भी आभास होता है इसमें लेखक ने अपने अतीत पर नजर डाली है। इन्हीं आत्मकथात्मक आलेखों में कुछ अंश उनके बचपन से जुड़ी घटनाओं के भी हैं। पुस्तक का प्रकाशन दिल्ली के राजकमल प्रकाशन ने किया है

फर्लांग भर से कुछ लंबी, कमर से काफी ऊँची, लाल-ईंटों की बनी एक दीवार है और यह दीवार एक डामर की सड़क के किनारे-किनारे चली गई। इसके दो लोहे के फाटकों में से एक हमेशा बंद रहता है, दूसरे पर हम लोग अक्सर ही झूलते हैं और उसे इस सिरे से उस सिरे तक ले जाने में हवाई जहाज का आनंद पाते हैं या हाथ-पैरों में चोट लगाकर रोते हुए घर आते हैं

पच्चीस-तीस बीघे का लंबा-चौड़ा अहाता, बीच में लाल-ईंटों की अस्पताल की बिल्डिंग, एक सिरे पर मरीज खाना...यानी एक लाइन में बनी बरांडे वाली कोठरियाँ, कम्पाउंडर का क्वार्टर, और तब इस सिरे पर डॉक्टर का मकान। उससे लगे छः सीधे खंभों पर फूस का छप्पर या शेड जिसे सब लोग 'बंगलिया' कहते हैं; पास ही जमादार के रहने वाली झोपड़ी, कंजर-परिवार की झोपड़ियाँ-कुआँ और फिर दो-दो खेत की जगह

सड़कों के पार खुले खेतों के बीच जाती हुई सड़क के उस ओर थाना, मस्जिद, स्कूल और बहुत बड़ा बरगद का पेड़-आधे पोखर को ढँके हुए, तब कस्बा। बीच की उस पक्की सड़क द्वारा एकदम काटकर अलग कर दिए गए इस अस्पताली-द्वीप से ही मेरी रचना-यात्रा शुरू हुई।

कुछ इसी तरह का रहा है बचपन। सारे दिन खेतों में घूमते हैं, बम्बे के आसपास भटकते हैं, मरीजों, कंजरों, जमादार, कम्पाउंडरों के बच्चों के साथ उधम मचाते हैं, अस्पताल में जाकर 26 और 8 नवंबर को शर्बत पीते हैं, ग्लीसरीन और पोटेशियम पर मैगनेट मिलाकर आग जलाते हैं, पेड़ों पर चढ़ते हैं और जाने कहाँ-कहाँ से पकड़कर लाए जाते हैं। केशी महाराज का एक काम हमारी जासूसी करना भी है

कैसे भी छिपकर कुछ करो, उसे जरूर पता चल जाता है कि कहाँ हम मिट्टी में खेले, किसके खेत की नाली को हमने बदल दिया, किसके हरेचने उखाड़े या कहाँ किससे क्या माँगा। बाई (माँ) का काम है दिन में दो-चार बार डाँट-डपटकर पिटाई करना, पकड़-पकड़कर नहलाना, दोपहर में अँधेरे कमरे में बंद करके सुलाना या सारे दिन किताबें पढ़ना और आधासीसी के देशी इलाज करते रहना।

हमारे यहाँ किसी भी काम का कोई समय या कायदा नहीं है। दूर से देखते हैं कि थाने के पास की मस्जिद से अजान बंद हो गई है। मौलवी साहब ने दरवाजे की कुंडी चढ़ा दी, यानी उनके आ पहुँचने से पहले पाँच ही मिनट हाथ में है, छिपना-भागना जो भी हो इसी बीच कर डालो। कभी भाई आवाज लगाता है, 'टूटी साइकल' आ रही है

हिन्दी के सूखे पंडितजी कुछ इस तरह चलते हुए हाथ-पाँव फेंकते हैं कि उनका नाम पड़ गया है, 'टूटी साइकल।' हम लोगों का सारा दिन इन दो 'देवदूतों' के हमले से बचने की तिकड़में सोचने, भागने-छिपने, पेड़ों-खपरेलोंपर जा चढ़ने या पेट-दर्द, बुखार पैदा करने में जाता है। उर्दू-हिन्दी पढ़ने से ज्यादा जरूरी काम करने होते हैं-पतंग, लट्टू, गेंद, गिल्ली-डंडा, बढ़ईगिरी या किले बनाने के

केशी महाराज शाम को बस्ती की रामलीला में लक्ष्मण या परशुराम बनता है। लेकिन वहाँ तभी जा पाएगा जब यहाँ का काम खत्म कर लेगा। तीन बजे उसे जगाने से लेकर उसके साथ सफाई, पानी-छिड़काव और खाना बनाना और तब उसी के साथ रामलीला जाकर मेकअप में मदद करना या दरी पर सबसे सम्माननीय स्थान पर बैठना-'डाक्साब के बच्चे हैं!'

पढ़ाई की व्यवस्था या सामान्य वातावरण अच्छा नहीं है, इसीलिए हम दो भाइयों को पिताजी ने भेज दिया है चाचाजी के पास-मवाना कलाँ, जिला मेरठ। यहाँ ज्यादा अनुशासित माहौल है-कचहरी से लौटकर चाचाजी रोज देखते हैं कि हमने स्कूल या घर पर क्या पढ़ा है

हवन, गायत्री और प्रभातफेरियों का भी जोर है। लेकिन उस दिन स्कूल के मैदान में झड़प हो गई, बलवीर ने टखने में हॉकी मारी तो मैंने पलटकर कंधे का निशाना बनाया। घर आकर बताया, नया जूता पहनने से टखने में मोच आ गई है। सिंकाई, मालिश और आधे डॉक्टरों, आधे देसी इलाजों के बीच पाँव फूलता चला जाता है। महीने भर से कोई सुधार नहीं

पिताजी आते हैं और मथुरा ले जाते हैं। सिविल सर्जन व्यक्तिगत दिलचस्पी ले रहा है। एक्सरे, दवाएँ, क्लोरोफार्म, ऑपरेशन। घुटने से टखने तक की पूरी हड्डी गल गई है, इसलिए निकालने के सिवा कोई चारा नहीं है। सख्त-गुस्सैल और जिद्दी पिताजी बार-बार आँखों पर रुमाल रख लेते हैं, फिर एक ओर ऑपरेशन...

और फिर वही कम्पाउंडर, वही खेत-बस्ती, वे ही लोग। ड्रेसिंग, पट्टियाँ, सिंकाई और लकड़ी के चौखटे में जकड़ी टाँग...सारे दिन मन बहलाने के लिए पिताजी ताश, कैरम, शतरंज, चौपड़ खेलते हैं। मथुरा से नई-नई चीजें लाते हैं- लूडो, साँप सीढ़ी, पतंगें, आतिशबाजी या दवाओं के बड़े-बड़े बक्से

इन्हें खुलवाने, घास-फूस हटाने और एक-एक दवा या औजार को देखने में हमें बड़ा मजा आता है। शाम को आता है चाटवाला भिक्खी। हम लोग जुट पड़ते हैं। खोमचा खत्म। 'इन सब लोगों को खिला दो पैसे हमसे ले जाना।'

हफ्ते में एक बार पिताजी की आज्ञा है। हमारी शर्त यही है, रात को आकर कहानियाँ सुनानी होगी। खाने-पीने के बाद चाँदनी रात के जादुई माहौल में हम सब लोग चारपाइयों और मूढ़ों पर बैठ जाते हैं और बेले-मेहँदी की गंध से वातावरण महकता रहता है

उधर अँधेरे में बरामदे की सीढ़ियों पर बाई (माँ) बैठती है। बहुत विस्तार, ब्यौरे और पूरी नाटकीयता से कहानी सुनाता है भिक्खी। बैताल-पच्चीसी और सिंहासन बत्तीसी स्रोत है। शाम को अखबार आता है, शायद 'हिन्दुस्तान टाइम्स।'

कस्बे के दो-चार लोग, अगर संबंध अच्छे हुए तो थानेदार, कम्पाउंडर सब लालटेन के आसपास जमा होकर उसे षड्यंत्रकारियों की तरह पढ़ते हैं, बहस करते हैं। लड़ाई शुरू हो गई है।

गाँधी और कांग्रेस का जोर है। अँगरेजों की हार से खुशी होती है। दिन में अस्पताल के समय के अलावा पिताजी मेरे पास अक्सर ही आराम से मुढे पर बैठकर अलिफ-लैला, दास्तान अमीर हम्जा की कहानियाँ पढ़कर सुनाते हैं और जहाँ छोड़ जाते हैं, वहाँ मेरी जान अटकी रहती है

मैं खुद सारे दिन इन्हीं किताबों को पढ़ता हूँ...और धीरे-धीरे हिन्दी-उर्दू के घटना प्रधान, जासूसी-तिलस्मी उपन्यासों पर आ जाता हूँ। छोटा भाई सत्येन्द्र अब आगरे में पढ़ने लगा है। जब वह आता है तो पतंग, माँझा, चाबीवाले खिलौनों को साथ लाता है, सेक्स्टन-ब्लैक और राबर्ट-ब्लैक के उपन्यास या दरोगा-दफ्तर सीरिज और 'प्रभात किरण' की दो आना सीरिज की उपन्यास माला की पुस्तकें भी ले आता है

साप्ताहिक 'देशदूत' में गोपाल राम गहमरी का 'झंडा डाकू' इतनाक में दिया जाता है कि हर समय जान वहीं उलझी रहती है। कहानियाँ,अपने रोमांचक अनुभव सुनाता केशो महाराज भी है। मगर भिक्खी के कहानियाँ सुनाने का मजा ही दूसरा है-एकदम तस्वीर खड़ी कर देता है, स्थिर नहीं, चलती-फिरती तस्वीरें...

कड़वी-मीठी दवाओं, इंजेक्शनों और पट्टी बदलने के बीच यों बँधे-बँधे लेटे रहने से मेरी कल्पना बहुत तेज हो गई है और उसमें समिधा देती है ये पढ़ी-सुनी हुई कहानियाँ। मैं सारे दिन सपने देखता हूँ, उड़ता हूँ और समझने की कोशिश करता हूँ कि सोते समय राजा का हाथ रानी के गले या छाती पर ऐसे किस तरह और क्यों पड़ गया कि उनका नौलखा हार बिखर गया? उपन्यासों में जो बार-बार प्यार और मुहब्बत की बातें आती हैं, उनका क्या मतलब है?

या मरजीना ने घड़ों में जब गर्म तेल डाला तो वह तख्ते से चिपका कैसे, कितने दिनों में किनारे आया होगा? पीर-तस्मा पा को कंधे पर चढ़ाते ही उसने कैसे चमगादड़ की तरह सिन्दबाद की गर्दन अपनी टाँगों में भींच ली? क्या संटियाँ मार-मारकर चौबीसों घंटे उसे हाँकता ही रहता था, 'ल, इधर चल, उधर दौड़, खबरदार जो रुका तो।' क्या टाँगों में गर्दन फँसाए ही सोता था? पहाड़ों से आती हुई वह आवाज कैसी थी जिसे सुनकर हातिम बेसाख्ता उधर दौड़ पड़ा?

सचमुच तब मुझे कतई अहसास नहीं था कि अपने भीतर के पहाड़ों से आती किसी आवाज को मैं भी तो ठीक उसी तरह सुनने लगा हूँ। सिर्फ इतना पता था कि मैं सारे दिन बैठकर कुछ न कुछ लिखने की कोशिश करता रहता हूँ।

आसपास के लोगों पर कविताएँ लिखकर मैं तिलस्मी उपन्यास लिखने में जुट जाता हूँ 'देवगिरि'। तय है कि चंद्रकांता-सन्तति से बड़ा होगा, ज्यादा जटिल होगा। रहस्य-रोमांच, देशभक्ति, क्रांतिकारिता और एडवेंचरिज्म सभी कुछ होगा उसमें। बाई जो बंदी-जीवन, सावरकर, आजाद-भगतसिंह या 'चाँद' के फाँसी अंक की कहानियाँ सुनाया करती थी, वे ही नसों में सनसनाती रहती। काश, मैं भी किसी ऐसे क्रांतिकारी को देखूँ, मिलूँ। बम बनाने की कोशिश सिर्फ गंधक, शोरा और पिसा कोयला मिलाकर पटाखे बनाने तक रह जाती है।

मेरी दुनिया आधी कल्पना की बनी है, आधी-वास्तविक। जिंदगी में जितना भी एक्शन नहीं है, लिखने में उतना ही बढ़-चढ़कर आता है; दौड़ लगाते घोड़े, दसियों लोगों को मार गिराने वाले नायक, गोलियों को झूठलाते और किलों की ऊँची-ऊँची दीवारों को इच्छानुसार फलाँगते रूप बदलते अय्यार...आज लगता है कि इन रचनाओं के बहाने मैं देश-काल दोनों को फलाँग जाना चाहता था।

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