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साहित्य की अनूठी स्मृतियां बसी हैं बनारस में

वाराणसी के साहित्यकारों की नजर में आज का माहौल

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गंगा की कलकल धारा और तारों के आलोक में तुलसी, कबीर, भारतेन्दु हरिश्चंद्र, मिर्जा गालिब, प्रेमचंद्र, जयशंकर प्रसाद के साहित्य एवं काव्य की अमिट स्मृतियों को संजोए काशी में चुनावी सियासत के बदलते स्वरूप के बीच साहित्यकारों को उम्मीद है कि वाराणसी की गंगा जमुनी तहजीब पर कोई आंच नहीं आएगी।

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जाने माने साहित्यकार काशीनाथ सिंह ने कि भारतीय संस्कृति विविधताओं से भरी रही है जो अनेक धर्मो, पंथों का मिश्रण है। काशी में इसका संगम मिल जाएगा, यह गंगा-जमुनी तहजीब की सभी खूबियों को समेटे हुए है। यह तीर्थस्थल है लेकिन हिन्दूत्ववादी कभी नहीं हुआ हालांकि यहां बड़े-बड़े हिन्दू दर्शनिक जरूर हुए। लोगों के मन में अमिट स्मृतियों को संजोए बनारस की पहचान वक्त के साथ सदियों से बनी रही है और बनी रहेगी।

बुद्धिनाथ मिश्र ने कहा कि नए जमाने के विरोधाभासों से जर्जर इस प्रचीन नगरी में करीब 600 साल पहले एक बुनकर कवि कबीर ने जीवंत बुद्धिमता का अमर काव्य रच डाला। आज जब चुनावी बहस उत्तरोत्तर कर्कश होती जा रही है, उस समय कबीर की उक्ति,'' काशी काबा एक है, नाम दारया दो'' काफी प्रासंगिकता रखती है।

साहित्यकारों का कहना है कि कभी संस्कृत की पाठशाला रही और चाय के ठीहों पर चर्चा के लिए मशहूर काशी का स्वरूप थोड़ा बदला जरूर है लेकिन इसका मिजाज अभी भी 'बनारसी'बना हुआ है। लेखक सुधीर राघव ने कहा कि मिर्जा गालिब अपनी कोलकाता यात्रा के दौरान बनारस में रूके थे। कुछ दिन यहां रहे भी। शहर की मोह लेने वाली खूबसूरती पर उन्होंने एक शेर भी लिखा जिसमें उन्होंने काशी की तुलना स्वर्ग से करते हुए इसे बुरी नजर से दूर रखने की दुआ की थी।

उन्होंने कहा कि चाय के ठीहों का स्वरूप थोड़ा बदल गया है। चाय की दुकान पर आजकल बहस गर्माने के लिए मीडिया के कैमरों का इंतजार होने लगा है।

मिश्र ने कहा कि भारतेन्दु हरिश्चंद्र ने ' प्रेम योगिनी' में एक पथिक के माध्यम से बनारस का रंग पेश किया जो 'देख तुम्हारी काशी' में स्पष्ट झलकता है। साहित्यकार डॉ. लाल बहादुर वर्मा ने कहा कि वाराणसी की पहचान के अनेक प्रतीकों में प्रेमचंद्र का नाम प्रमुख है और उनकी जन्मस्थली 'लमही' इसकी आत्मा से कम नहीं है। जो लमही मन और आत्मा में वास करती थी, उसका स्वरूप अब किसी कोने में भी नहीं दिखाई देता है। लमही में अब कोई गांव नहीं बल्कि एक बसता हुआ शहर सांस लेता है।

साहित्यकारों का कहना है कि गंगा की कलकल धारा और तारों के आलोक में होने वाली गंगा आरती अब हैलोजन की लाइट और लाउडस्पीकर के शोर में खोती दिख रही है।

इन साहित्यकारों का कहना है कि गोदान, कर्मभूमि, रंगभूमि, निर्मला जैसे उपन्यासों, पूस की रात, कफन, नमक का दारोगा जैसी कहानियों के पात्र कथित विकास के दावों के बीच आज भी मौजूद हैं ,लेकिन आज कोई भी इनकी सुध लेता नहीं दिखाई दे रहा है। इन चुनौतियों के बीच संवाद का बनारसी अंदाज आज भी बरकरार है ।

छायावाद के संस्थापकों में से एक जयशंकर प्रसाद ने अपनी कविताओं के माध्यम से बनारस की अनुभूतियों को प्रस्तुत किया और वह इस क्षेत्र में नव अनुभूति के वाहक भी रहे।

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