Select Your Language

Notifications

webdunia
webdunia
webdunia
webdunia
Advertiesment

ह‍िन्दी साहित्य और 'आज का सच'

रवीन्द्र गुप्ता

हमें फॉलो करें ह‍िन्दी साहित्य और 'आज का सच'
प्राचीन ह‍िन्दी साहित्य की परंपरा काफी समृद्ध और विशाल रही है और आज भी है। ह‍िन्दी साहित्य को सुशोभित-समृद्ध करने में मुंशी प्रेमचंद, सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला', महादेवी वर्मा, पांडेय बेचन शर्मा 'उग्र', सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन 'अज्ञेय', रामधारी सिंह 'दिनकर', रामवृक्ष बेनीपुरी, डॉ. हरिवंशराय बच्चन, कबीर, रसखान, मलिक मोहम्मद जायसी, रविदास (रैदास), रमेश दिविक, रामेश्वर शुक्ल 'अंचल', आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, पं. माखनलाल चतुर्वेदी, डॉ. धर्मवीर भारती, जयशंकर प्रसाद, डॉ. शिवमंगलसिंह सुमन, अज्ञेय, अमीर खुसरो, अमृतलाल नागर, असगर वजाहत, आचार्य चतुरसेन शास्त्री, आचार्य रजनीश, अवधेश प्रधान, अमृत शर्मा, असगर वजाहत, अनिल जनविजय, अश्विनी आहूजा, देवकीनंदन खत्री, भारतेंदु हरी‍शचंद्र, भीष्म साहनी, रसखान, अवनीश सिंह चौहान आदि का कमोबेश महत्वपूर्ण योगदान रहा है।

जब हम आज के हिन्दी साहित्य पर नजर दौड़ाते हैं तो पता चलता है कि आज साहित्य में निरंतर गिरावट का दौर जारी है। आज साहित्य के प्रस्तुतीकरण का स्तर लगातार गिरता जा रहा है। आज साहित्य में कुछ-कुछ स्थानों पर अमर्यादित तथा अश्लील भाषाओं का प्रयोग लगातार बढ़ता चला जा रहा है। पाठक जल्दी में होने की वजह से 'सब चलता है' कहकर अपनी राह हो लेते हैं। इसे तो कदापि हम साहित्य नहीं ही कहेंगे।

साहित्य का अर्थ व उद्देश्य अपनी सभ्यता व संस्कृति को अपने ढंग से आम जनता/ पाठक के सामने प्रस्तुत करना होता है। साहित्य समाज का दर्पण होता है, जिसमें समाज अपना अक्स (चेहरा) देखता है। साहित्य समाज का नवसृजन करता है। साहित्य को समाज को नई दशा व दिशा देने वाला माना जाता है।

पहले के साहित्यकार अपना खून सुखाकर साहित्य का नव-सृजन करते थे। मुंशी प्रेमचंद के बारे में कहा जाता है कि वे बेहद अभावों के बीच साहित्य-सृजन करते थे। उनके पास कई जरूरी स्टेशनरी भी नहीं हुआ करती थी। उनके घर में उस जमाने में बिजली भी नहीं थी। चिमनी की रोशनी में मुंशीजी लिखा करते थे।

webdunia
FILE
यह 'साहित्य का धनी' किंतु 'अर्थ' (धन) का गरीब साहित्यकार अपने साहित्य रचना-कौशल में इतना डूब जाता था कि कब रात हुई और कब सुबह हुई, उसे खुद ही पता नहीं चलता था। साहित्य-सृजन के चलते उन्हें कई बार अपनी भार्या (स्त्री) की डांट भी खानी पड़ती थी। मुंशीजी कई बार कंबल के अंदर (या आड़ में) चिमनी की रोशनी में साहित्य-सृजन करते थे ताकि गृहस्वामिनी की नींद में खलल न हो।

ऐसा खून सुखाकर लिखने वाले साहित्यकार अब कहां? अब तो अर्थ बिना साहित्य-सृजन कहां? लेखक लिखने से पहले भावताव तय कर लिया करते हैं। प्रकाशक 'अपने हिसाब से' लेखकों से लिखवाया करते हैं। मौलिकता का धीरे-धीरे क्षरण व अभाव होता जा रहा है। कई लेखक (?) तो इतने 'सड़क छाप' हैं कि उन्होंने क्या लिखा (या लिख मारा) उन्हें स्वयं को ही पता नहीं होता है। इन्हें 'लेखक' (?) कहना 'लेखक' शब्द का ही अपमान है।

आजकल तेजी की ज़माना जो है, तो उस हिसाब से ही वर्तमान में साहित्य-सृजन हो रहा है। पत्र-पत्रिकाओं की बाढ़-सी आई हुई है। पाठक के सामने समस्या यह है कि किस पत्र या पत्रिका को पढ़ा जाए। किसमें क्या लिखा गया है, इसका कैसे पता किया जाए।

अधिकतर पत्र-पत्रिकाएं आजकल बढ़‍िया चिकने कागज पर रंगीन प्रकाशित हुआ करती हैं। गलाकाट प्रतियोगिता के इस जमाने में हर पत्र-पत्रिका अपने आपको तड़क-भड़क व ग्लैमर के साथ (या रूप में) परोस रहे हैं पाठकों के सामने। कई बार पत्र-पत्रिका का आकर्षक आवरण (मुखपृष्ठ) देखकर ही पाठक उसे खरीद लिया करते हैं। वे यह देखने की तकलीफ भी गवारा नहीं करते हैं कि पत्रिका के अंदर के लेख-मैटर आदि किस प्रकार के हैं। किसे फुरसत है?

पहले संसाधनविहीन जमाने में उत्कृष्ट दर्जे का साहित्य-सृजन हुआ करता था, अब तीव्र-द्रुतगामी संसाधनों के जमाने में साहित्य का स्तर लगातार पतन की ओर अग्रसर है। यह निश्चित रूप से चिंतनीय है।

Share this Story:

Follow Webdunia Hindi