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‘कथाबिम्ब’ की अलग पहचान

कुछ कही, कुछ अनकही

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‘कथाबिम्’ ने प्रकाशन के तीसवें वर्ष में प्रवेश किया है। प्रारंभ में कुछ वर्षों तक ‘कथाबिम्’ द्वैमासिक पत्रिका के रूप में प्रकाशित होती थी। इस तरह गर एक स्थूल अनुमान लगाया जाए तो अब तक पत्रिका के 100 से कुछ अधिक अंक प्रकाशित हो चुके हैं। कहना न होगा कि इस दौरान हजारों छोटे-बड़े रचनाकारों को ‘कथाबिम्’ ने एक स्वस्थ मंच प्रदान किया है। प्रारंभ से ही पत्रिका ने हिन्दी कहानी को प्रधानता देते हुए अपने आपको किसी वाद, खेमे या गुट से अलग रखा। यही कारण है कि आज देश की कुछ इनी-गिनी लोकप्रिय पत्रिकाओं में ‘कथाबिम्’ की एक अलग पहचान बन गई है।

इधर हाल के कुछ प्रवासों में कई साहित्यकारों से मिलने का संयोग हुआ। बहुतों से मेरा व्यक्तिगत परिचय नहीं था, फिर भी वे ‘कथाबिम्’ को पहचानते-जानते थे। अभी कुछ दिन पूर्व इलाहाबाद वि‍श्वविद्यालय के भौतिकी विभाग के आमंत्रण पर, दिसंबर 07 में इलाहाबाद जाना हुआ।

बहुत ही कम समय की सूचना पर आनन-फानन में कथाकार सुभाषचंद्र गांगुली ने एक काव्य संध्या का सफल आयोजन किया। इसमें उपस्थित सभी रचनाकार मुझे व्यक्तिगत तौर पर नहीं भी जानते थे, पर ‘कथाबिम्’ से ‍परिचित थे। इस तरह फतेहगढ़-फर्रुखाबाद प्रवास के दौरान ‘शिखर संस्थ’ ने मेरे और पत्नी मंजुश्री के सम्मान में एक काव्यगोष्ठी आयोजित की। दूसरे दिन, पास के कस्बे छिबरामऊ में भी ‘सामाजिक क्रांति परिष’ ने हमारा सम्मान किया। यह सब साबित करता है कि देश के साहित्य प्रेमियों के मध्य ‘कथाबिम्’ की पैठ कितनी गहरी हो गई है

कथाबिम्ब की कहानियों का परिचय
पहली कहानी ‘हे राम!’ भागीरथ प्रसाद (सुशांत प्रिय) की कहानी है जो अपनी कॉलोनी की गंदगी की सफाई करना चाहता है, लेकिन इसके चलते पागल करार दिया जाता है। मंगला रामचंद्रन की कहानी ‘सजायाफ्त’ उस बेटे की कहानी है जो एक गलत धारणा को मन में पालकर अपने पिता को गंगाघाट पर छोड़ आता है, लेकिन इस भयंकर गलती की सजा से बच नहीं पाता। अगली कहानी ‘बस चाय का दौर था...’ में राजेन्द्र पांडे ने रेखांकित किया है कि तथा‍कथित बुद्धिजीवी अधिकांशत: चाय के दौर के साथ तमाम मुद्दों पर मात्र चर्चा ही करते रहते हैं, बस इससे अधिक कुछ नहीं।

डॉ. वी. रामशेष की कहानी ‘मध्यांत’ एक अजीब स्थिति की कहानी है। दोस्त की मृत्यु के कारण एक खुशनुमा शाम बिताने की आकाश की सारी प्लानिंग धरी की धरी रह जाती है या फिर यह दु:खद हादसा एक मध्यांतर ही था! राजेन्द्र वर्मा की कहानी ‘रोशनी वाल’ उस व्यक्ति की कहानी है, जो पढ़ाई में अच्छा होने के बावजूद गरीब होने के नाते अपनी जिंदगी में रोशनी नहीं भर सका। यह गौरतलब है कि इस अंक में श्रीमती मंगला रामचंद्रन को छोड़कर अन्य रचनाकारों की कहानियाँ ‘कथाबिम्’ में पहली बार जा रही हैं

कुछ कही, कुछ अनकही
देश एक संक्रमणकाल से गुजर रहा है। आजादी के बाद के शुरुआती दशकों की बहुत-सी समस्याओं से हम उबर चुके हैं। हरित क्रांति और श्वेत क्रांति के कारण हम खाद्यान्न और दुग्ध उत्पादन में आत्मनिर्भर हैं। सुरक्षा उत्पादन, स्टील-सीमेंट उत्पादन, मोटर-कार उत्पादन में हम बहुत से देशों से आगे हैं। ऐसे कुछ और भी ‍क्षेत्र गिनाए जा सकते हैं। एक समय था जब अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष से लिए ऋण का ब्याज चुकाने के लिए और ऋण लेना पड़ता था। यहाँ तक कि रिजर्व बैंक में रखा सोना भी हमें गिरवी रखना पड़ा।

भला हो कम्प्यूटर और सूचना प्रौद्योगिकी का कि आज हमारे पास विदेशी मुद्रा की कमी नहीं है। हमारे कम्प्यूटर इंजीनियर दुनियाभर में छाए हुए हैं। खाड़ी देश अब लोकप्रिय गंतव्य नहीं रह गए हैं। अमेरिका में आप कहीं भी जाएँ, काफी बड़ी संख्या में सब तरफ हिन्दुस्तानी बेखौफ घूमते नजर आते हैं। बहुत पहले, अमेरिका में ‘डॉट बस्टर्’ से भारतवासियों को खतरा बना रहता था कि कब कोई दंगाई आकर हिन्दुस्तानी औरत के माथे पर ‍लगी बिंदी का लक्ष्य साध ले।

हमारे देश में भी अब ‘ब्रेन ड्रे’ की कोई बात नहीं करता। प्रश्न यह उठता है कि इतना कुछ होने के बाद क्यों नहीं बिजली, सड़क, मकान, भोजन, पानी, जनसंख्या-वृद्धि, बेरोजगारी, अशिक्षा, भुखमरी, बाढ़, सूखा जैसी हमारी मूलभूत समस्याओं के कोई भी समाधान सामने नहीं दिखाई दे रहे हैं? अभी कुछ दिन पूर्व हरियाणा सरकार की चपरासियों की तीन नौकरियों के विज्ञापन के जवाब में 11 हजार आवेदन प्राप्त हुए।

दरअसल, देखा जाए तो सत्ताधारी कर्णधारों में इन समस्याओं का समाधान ढूँढने की न तो योग्यता है और न ही वे इस दिशा में कुछ करना चाहते हैं। अगर जनता की सब परेशानियों का पार लग गया तो फिर इन कर्णधारों को कौन पूछेगा? वोट बैंक की राजनीति का पहला नियम है कि केवल आश्वासन दो और कठिनाइयों को बरकरार रखो। हर चुनाव में एक नया नारा दो- ‘गरीबी हटा’ के बाद ‘कांग्रेस का हाथ, आम आदमी के सा’ और अब नए युवराज ने नारा दिया है- ‘कांग्रेस के दोनों हाथ गरीब आदमी के सा’। रोड शो करो या रथयात्रा करो। जनता की स्मृति तो वैसे ही कमजोर होती है। क्षेत्र-विशेष में जिस जाति‍या धर्म वाले अधिक हों उसके अनुसार प्रत्याशी को खड़ा करो, चाहे वह जेल के अंदर हो या बाहर। उसके बाद बस पौ-बारह!

आपातकाल के बाद आई जनता सरकार को ‘खिचड़ी सरका’ कहकर मखौल उड़ाने वाली 110 वर्ष पुरानी पार्टी की वर्तमान सरकार ऐसी खिचड़ी है जिसमें कंकड़ ज्यादा हैं, दाल और चावल कम। बिना कोई दायित्व उठाए, सहयोगी वामपंथी दल रोज गीदड़ भभकी देते रहते हैं। वैसे भी उन्हें सरकार के चलने न चलने से कोई मतलब नहीं, बस अगले चुनाव में अपने मतदाताओं को यह बताना आसान होगा कि आपके हितों के लिए हम हमेशा लड़ते रहे। वामपंथी दलों का एजेंडा किसी से छुपा नहीं है।

तिब्बत में हो रहे दमन को लेकर वाम‍पंथियों के साथ-साथ कांग्रेस भी चुप्पी साधे है। अरुणाचल को चीन ने अपना‍हिस्सा बताया तो हमारी कोई खास प्रतिक्रिया नहीं हुई। तिब्बत के धर्मगुरु दलाई लामा भारत में वर्षों से अतिथि के रूप में रह रहे हैं। उन्हें दिल्ली में अंतरराष्ट्रीय सम्मान दिया जाता है, लेकिन कार्यक्रम में सरकार का एक भी नुमाइंदा नहीं जाता। चीन में होने वाले ओलिंपिक खेलों की मशाल के स्वागत और दौड़ के दौरान राष्ट्रपति भवन से लेकर इंडिया गेट तक का इलाका छावनी में तब्दील कर दिया जाता है ताकि कहीं से कोई भी तिब्बती प्रदर्शनकारी आसपास भी फटक न सके। हमारी न कोई देशी नीति है, न विदेशी नीति। दलाई लामा सालोंसाल भारत में रह सकते हैं किंतु अगले वर्ष के चुनावों के मद्देनजर अल्पसंख्यकों को न वामपंथी बंगाल सरकार नाखुश करना चाहती है और न ही कांग्रेस।

लाखों बांग्लादेशी भारत में रह सकते हैं किंतु तस्लीमा नसरीन के लिए हमारे यहाँ कोई जगह नहीं। लंदन पहुँचकर एक वक्तव्य में तस्लीमा ने कुछ ऐसा ही कहा- ‘मेरा वीजा छ: महीने के लिए जरूर बढ़ा दिया गया मगर मैं एक बंधक की तरह रह रही थी। भारत सरकार धार्मिक कट्टरपंथियों से भिन्न नहीं है। दिल्ली मेरे लिए टॉर्चर चेम्बर जैसा था। मैं कुछ बोल नहीं पाती थी। मेरी गतिविधियों पर चौबीसों घंटों नजर रहती थी। मैं एक सोने के पिंजरे में कैद थी। मैं बीमार पड़ी तो सरकारी डॉक्टर से इलाज कराया गया।

मैं ठीक होने के स्थान पर और बीमार होती गई। एक दिन बेहोश होकर गिर गई। मैंने सोचा था कोलकाता में नहीं तो दिल्ली में रह लूँगी, मगर जब मेरे शरीर को खत्म करने का प्रयास होने लगा तो मेरे पास भारत छोड़ने के अलावा दूसरा रास्ता नहीं था‘ तस्लीमा ने भारत छोड़ दिया किंतु हमारे मानवाधिकारों ने चूँ भी नहीं की! अफजल गुरु की फाँसी भी अगले चुनाव तक निलंबित रहेगी।

पिछले कुछ महीनों से लगने लगा है कि देश में ‘सरका’ जैसे है ही नहीं! थोड़ी देर के लिए यह मान भी लें तो उसे प्रधानमंत्री तो अवश्य नहीं चला रहे हैं, वे मात्र किसी और का मुखौटा हैं। सारे निर्णय कोई और लेता है, सारे निर्देश कहीं और से आते हैं। अकबर द्वारा खींची लकीर के पास एक दूसरी लकीर खींचकर बीरबल ने लकीर को छोटा कर दिया था, इसके विप‍रीत आज छोटी लकीर को बड़ी करने के लिए उसके आसपास कई छोटी लकीरें खींचकर बड़ा बनाने के प्रयास निरंतर जारी हैं।

चाहे वह राष्ट्रपति के पद की गरिमा का प्रश्न हो अथवा प्रधानमंत्री के पद की बात हो, इन पर विराजमान व्यक्ति ‘बाई डिफाल्’ वहाँ पहुँचे हैं। मनमोहनसिंह मात्र एक कार्यकारी प्रधानमंत्री हैं, जैसे ही कोई उपयुक्त व्यक्ति पद ग्रहण करने को तैयार होगा, उन्हें इस गद्दी को त्यागना पड़ेगा। कुछ दिन पूर्व, कई बार टलने के बाद, चार साल के बाद पहली बार मंत्रिपरिषद का विस्तार संभव हो पाया, लेकिन अभी भी कई पद रिक्त हैं।

मीटिंगों और सभाओं में प्रतिदिन प्रधानमंत्री कुछ न कुछ कहते हैं किंतु उनकी आवाज वातानुकूलित सभागृह से बाहर तक नहीं जा पाती। भारत जैसे गरिमाशाली विशाल देश का सर्वोच्च नेतृत्व ऐसे व्यक्ति के हाथ में होना चाहिए जिसके एक आह्वान पर देशवासी अपना सबकुछ न्योछावर करने को तत्पर हों। छोटे कद के प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री कितने कद्दावर थे कि उनके एक बार कहने पर जनता ने एक बार का खाना छोड़ दिया था

दरअसल सरकार के पास मूलभूत समस्याओं से निपटने के कोई ठोस या कारगर उपाय नहीं हैं। महज ‘टोकनिज्’ से कुछ हासिल नहीं हो सकता- कभी निर्यात पर रोक लगा दो और कभी महँगे और आदमियों के न खाने योग्य खाद्यान्न का आयात करो और बाद में उसे नष्ट कर दो। महँगाई बढ़ रही है तो उसका कारण जमाखोरी है या फिर सारी दुनिया के हालात ही खराब हैं! और नहीं तो राज्य सरकारों के पाले में गेंद फेंक दो।

‘रियल्ट’ कार्यक्रमों में किसी को जिताने के लिए वोट माँगकर अथवा अन्य किसी घटना पर अपने विचार एसएमएस द्वारा भेजने पर टीवी चैनल्स मोटी कमाई में जुटे हैं। क्रिकेट मैच हारने के बाद ‘कमजोर कड़ी कौन?’ के लिए भी एसएमएस द्वारा मत आमंत्रित किए जाते हैं। आश्चर्य नहीं होगा कि शीघ्र ही कोई चैनल एसएमएस द्वारा जनता के मत माँगता दिखाई दे कि चौधरी चरणसिंह, विश्वनाथ प्रताप सिंह, चंद्रशेखर, देवेगौड़ा, आईके गुजराल और डॉ. मनमोहनसिंह में से सबसे कमजोर प्रधानमंत्री कौन?

देश का समृद्ध और मध्यम वर्ग आईपीएल के ट्‍वेंटी-20 मैचों में आकंठ डूबा रहा। उसे ‍बिजली, पानी, सड़क की समस्या से कुछ लेना-देना नहीं। टीम के मालिकों ने करोड़ों लगाए। उनकी अरबों की कमाई हुई। काला सफेद बना। रोज कितना सट्टा लगा होगा इसका अंदाज लगाना मुश्किल है। उधर पालकी सजाई जा रही है, बूढ़े-जवान कहार तैयार हैं, युवराज आओ, विराजो, हमारा जीवन सफल करो।

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