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हम पर पत्तियाँ गिर रही हैं

कवि अशोक वाजपेयी का डायरी अंश और कलाकृति

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रवींद्र व्यास

Ravindra VyasWD
ख्यात कवि-आलोचक अशोक वाजपेयी ने दक्षिण फ्रांस में आविन्यों में ला शात्रूज कला केंद्र में रहते हुए डायरी लिखी थी। ये डायरी उन्होंने 24 अक्टूबर से लेकर 10 नवंबर 1994 के बीच लिखी थी। यह अंश उसी डायरी का हिस्सा है। इस हिस्से का शीर्षक है-हम पर पत्तियाँ गिर रही हैं। शात्रूज में कई ँगन और चौगान हैं। उनमें हरी घास के अलावा वृक्ष और लतरें-पौधें हैं। एकाध गुलाब की लतर पर लिखा है कि यह प्राचीन गुलाब है। पता नहीं कितनी सदियों पहले की, पर अभी हरी और पुष्पित होने को उत्सुक लतर। सदियों की क्यारी में खिला अभी का गुलाब, उसकी हर लतर।

अभी लतर की बगल में एक वृक्ष है। उस पर भी नाम लिखा है। पर नाम वृक्ष का है। उसका एक बेहद सुंदर हार-गुलाबी पत्ता नीचे गिरा पड़ा थात जिसने हमने उठा लिया। उसकी सभी शिराएँ अभी स्पष्ट हैं। पर अलग से उसका कोई नाम नहीं। वह एक और पत्ती भर नहीं है , उसकी अद्वितीय उष्मा है-उसकी आभा अलग है।

पर उसका नाम नहीं है, वह अमुक वृक्ष की एक पत्ती भर है। हम सबके नाक-नक्श मिलते जुलते हैं पर हम सबके अलग अलग नाम हैं। मनुष्य दूसरे मनुष्यों के साथ कम, वस्तुओं के साथ अधिक अन्याय करता है। वह उन्हें उतने अलग अलग नाम नहीं देता जितने की वे पात्र हैं।

कविता मनुष्य के इस लगातार चल रहे अन्याय का प्रतिरोध करती, वस्तुओं की क्षतिपूर्ति करने की चेष्टा करती है। वह हर पत्ती को नाम देने की कोशिश करती है। कविता होने की अद्वितीयता की निस्संकोच स्वीकृति है। उसके लिए सभी सजीव हैं : प्रियतमा, खिड़की, घास में विचरती बीरबहूटी, पत्तियों से ढँकी बिसरा दी गई देवमूर्ति, घोर अरण्य में झरी पत्ती।

वह सबको उनका नाम देने की एक अथक असमाप्य उपक्रम है। कविता कोटियाँ या श्रेणियाँ बनाकर चीजों का ढेर नहीं करती। वह हरेक रूप के लिए नाम खोजती है। कविता यह कोशिश न करती तो हम बहुत सारी अद्वितीयताओं को जानने-पहचानने से वंचित रह जाते। कविता अद्वितीयता का कलात्मक ही नहीं, नैतिक संरक्षण भी है।

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