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प्रारब्ध नए युग का

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हेमंत गुप्ता 'पंकज'
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मैं छोड़ दूँगा एक दिन तुम्हें

या

छूट जाऊँगा मैं तुम से

नहीं रहेगा मुझ में,

प्रेम या घृणा का जज्बा

सुख-दुःख का अहसास,

स्वप्निल अठखेलियाँ

व्यतीत की अनुभूतियाँ

समाप्त हो जाएँगी

हो जाएगा अंत,

इस युग के

एक अध्याय का,

मेरे साथ ही

फिर भी जारी रहेगा

सूर्य का उदित और अस्त होना प्रतिदिन

सृष्टि का सृजन और विनाश निरंतर

हवाओं का अट्टहास और विलाप,

दिशाओं का लहराना और थमना

फूलों का खिलना और मुरझाना, निर्बाध

मेरे बाद भी, रहेंगी अक्षुण्ण,

शब्द की गूँज और चुप्पी

स्मृति और विस्मृतियाँ

ये घर-आँगन, तुम्हारी सौगातें,

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ये पौधे, जो रोपे हैं हमने

वृक्ष हो जाएँगे

अपनी चहारदीवारी में

और इनके तले तुम्हारे आँचल में

रहेंगी शेष मेरी कविताएँ चैतन्य

मैं अचानक हो जाऊँगा इतिहास

जिसके वातायन से प्रसवित होगा

प्रारब्ध नए युग का।

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