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अभिव्यक्ति की खतरनाक ऊँचाइयों तक

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चंद्रा पांडे
NDND
समय की गंध
कभी-कभी यादों की दराज खोलते ही
कैसी तीखी हो उठती है
बीते हुए समय की गंध!
नैप्थीन की गोलियों की तरह
समय की ठोस तेज गंध।
मैं बचना चाहती हूँ इससे
और चाहती हूँ इसे सूँघना भी।

बीता हुआ कल पुरातात्विक खंडहर
नरम पत्थर पर खुदी कलाकृति सा
ठोस और कठोर है,
नहीं ध्वस्त किया जा सकता
तेज धारदार पैनी छुरी से भी।
जो कुछ हुआ और हो रहा है
सबकी मूक गवाह
अभिशप्त यक्ष सी मैं
मर्मान्तक स्मृतियों को
संवेदनात्मक स्तर पर दुहराते हुए
अव्यक्त पीड़ा से गुजरती हूँ।
अतीत का पुल पार कर
अनेक चेहरे आ खड़े होते हैं जब-तब
और मैं महसूसती रह जाती हूँ सबकी
अलग-अलग तेज गंध।
प्रतिबद्धता
मेरी कविता जुड़ी रहना
चाहती है
अपने देश से
देश से यानी दिल्ली, बंबई, कलकत्ता,
मद्रास जैसे महानगरों से
नहीं
दूर सुदूर के अनाम गाँवों
आदिवासी बस्तियों
इतिहास से उन्मूलित किए जाते
कबीलों, जनजातियों
और मिटाई जाती लोक संस्कृतियों से
यह बेरुखी से मूँद आँखें
व्यवस्था और तंत्र की
अमानवीयता से,
केवल खुद के बनाए शब्दों
के इंद्रजाल में
नहीं उलझी रहना चाहती
चाहती है आँकना
रोग शोक विछोह उदासीनता भरा
रोजमर्रा का जीवन
मिथकों के अबूझ जगत
और अंधविश्वास के कोहरे से निकल
पकड़ हाथ शब्दों का चाहती है पहुँचना
अभिव्यक्ति की खतरनाक ऊँचाइयों तक
लिखना चाहती है दुःख और करुणा
से भीगी
धरती की व्यथा-कथा
और
आम आदमी की आँखों करोशनी।

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