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क़दमों की आहट

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त्रिलोक महावर
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क़दमों की आहट

अब भी सलामत हैं

क़दमों के निशाँ

चाँग भखार की

तपती रेत में

पाँवों में पड़े

छालों के निशाँ

जोहन-जोखन के मुर्झाए चेहरों पर

हँसी लौटाकर

भूल गया हूँ छालों की जलन

अब गाँव पहचानने लगे हैं

मेरे क़दमों की आहट।

साभार : संबोधन

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