सुभाष गौड़
चंचल छौने मेघ के रचें नया इतिहास।
आँखें मूँदे सूर्य की मिटे धरा की प्यास॥
चातक हर्षित हो रहे और विभोर है मोर।
धरती से अंबर तक खिंची रजत की डोर॥
मेघा मुक्ता लूटा रहे वल्लरियों पर हार।
धरा गगन के प्रेम का अद्भुत ये व्यापार॥
समीर के हरकारे चले लेकर सौंधी गंध।
नदियों के टूटन लगे मर्यादा के बंध॥
छम-छम करती बूँदनी गिरे व्योम से आय।
बदली ज्यों पायजेब से गौरी की टकराय॥
श्याम चंदोवा तन गया नभ में चारों छोर।
छादुर, मोर, पपीहा सब लगे मचाने शोर॥
नियति नटी की है कला अद्भुत व रंगीन।
तितली डोले बन परी झिंगुर बजाए बीन॥
झूले पड़ गए कुंज में पींग बढ़े उतराय।
मन में उठती हूक जब गोरी सावन गाय॥
तन को शीतल कर रही रिमझिम ये बरसात।
सुलगे ये मन बावरा ज्यों-ज्यों भीगे गात॥
पानी का दर्पण बना किरणें देखें रूप।
सतरंगी साड़ी पहन खिला धूप का रूप॥
सुनकर के घन घोष को कवि के जागे भाव।
कागज पर तिरने लगी तब शब्दों की नाव॥