पुरवा हुम-हुम करे,
पछुआ गुन-गुन करे
ढलती जाए
शिशिर की जवानी हो।
बीते पतझड़ के दौर,
झूमे आमों में बौर
कूके कुंजन में
कोयलिया कारी हो।
वन महकने लगे,
मन बहकने लगे
रितु फागुन की
आई सुहानी हो।
करे धरती श्रृंगार,
दिक वासंती चार
अलि करने लगे
मनमानी हो।
फले-फूले दिगंत,
गाता आए वसंत
हर सवेरा नया,
संध्या सुहानी हो।