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विंदा करंदीकर की कविता

मुक्ति ने खो दिया अपना अर्थ

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मुक्ति ने उसी दिन खो दिया अपना अर्थ
जब गोकुल में तुमने की थी
पहली चोरी।

तुम्हारा काला-काला काजल
आकर मिल गया मेरे झकझक श्वेत से
और अब मैं रह नहीं गई शुद्ध!
मैं बन गई कमल
तुम्हारे प्रखर तेज
और
जलनभरी मिठास को
पीने के लिए।
मेरी भीगी साड़ी के छोर से
एक काले फूल की खुशबू टपक पड़ी
तुम्हारे अतृप्त और अभिमानी नाखुनों पर।

तब से मैंने अपनी स्मृति की डलिया में
सहेजकर रख लिया है
तुम्हारे चौड़े सीने पर लहराता हुआ तुम्हारा पौरुष
तुम्हारा उम्मीदों से भरा भुजाओं का घेरा
तुम्हारी भौंहों की काली आदेशभरी ऊर्जा।

मुक्ति ने खो दिया अपना अर्थ
यमुना के तट पर।

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मैंने खो दिए अपने शब्द
और हो गया मूक।

तब से, हाँ तब से
मैंने अपनी स्मृति में बचा रखा है
गोकुल का सारा दूध
सारा दही
सारा मक्खन।

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