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शरद की पूर्णिमा को ...

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प्रभा सक्सेना
NDND
अँधेरा-
वह चाँदनी हुआ है
पहली बार मेरे समीप

कितना सुखद है
दुग्ध धवल बिस्तर पर
यों अकेले लेटना
और विभोर कर देने वाली
शरद की पूर्णिमा को
रोम रोम से
अपने भीतर
झरते हुए देखना

अंधकार प्रतिमाओं से दूर
बहुत दूर
मैं रह गया हूँ
महा नीलाकाश
और यह पूर्णिमा नहीं
मेरी चेतना है
जो धरती से आकाश तक
फैल गई है ।

हवा और मिट्‍टी से
तद्‍गत
तद्‍रूप
एक ‍अनिर्वचनीय
नाद की उर्मियों पर ।

साभार : संबोधन

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