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अश्लील पुस्तकों की होली

हरिशंकर परसाई की लघुकथा

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शहर में ऐसा शोर था कि अश्लील साहित्य का बहुत प्रचार हो रहा है। अखबारों में समाचार और नागरिकों के पत्र छपते कि सड़कों के किनारे खुले आम अश्लील पुस्तकें बिक रही हैं। दस बारह उत्साही समाज सुधारक युवकों ने टोली बनाई और तय किया कि जहाँ भी मिलेगा हम ऐसे साहित्य को छीन लेंगे और उसकी सार्वजनिक होली जलाएँगे।

उन्होंने एक दूकान पर छापा मारकर बीस-पच्चीस अश्लील पुस्तकें हाथों में की। हरेक के पास दो या तीन किताबें थीं। मुखिया ने कहा-'आज तो देर हो गई। कल शाम को अखबार में सूचना देकर परसों किसी सार्वजनिक स्थान में इन्हें जलाएँगे। प्रचार करने से दूसरे लोगों पर भी असर पड़ेगा। कल शाम को सब मेरे घर पर मिलो। पुस्तकें मैं इकट्ठी अभी घर नहीं ले जा सकता। बीस-पच्चीस हैं। पिताजी और चाचाजी हैं। देख लेंगे तो आफत हो जाएगी। ये दो-तीन किताबें तुम लोग छिपाकर घर ले जाओ। कल शाम को ले आना।'

दूसरे दिन शाम को सब मिले पर कोई किताब नहीं लाया था। मुखिया ने कहा-'किताबें दो तो मैं इस बोरे में छिपाकर रख दूँ। फिर कल जलाने की जगह बोरे ले चलेंगे।'

किताबें कोई नहीं लाया था।
एक ने कहा-'कल नहीं परसों जलाना पढ़ तो लें।'

दूसरे ने कहा-'अभी हम पढ़ रहे हैं। अब तो किताबें जब्त कर ही ली हैं। कभी भी जला देंगे।

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उस दिन जलाने का कार्यक्रम नहीं बन सका। तीसरे दिन फिर किताबें लेकर मिलने का तय हुआ। तीसरे दिन भी कोई किताब नहीं लाया।

एक ने कहा-'अरे यार फादर के हाथों किताब पढ़ गई। वे पढ़ रहे हैं।'

दूसरे ने कहा-'भाभी उठाकर ले गई। बोली कि दो-तीन दिनों में पढ़कर वापस कर दूँगी।'

चौथे ने कहा-'अरे पड़ोस की चाची मेरी गैरहाजिरी में उठा ले गई। पढ़ लें तो दो-तीन दिन में जला देंगे।'

अश्लील पुस्तकें कभी नहीं जलाई गई। वे अब अधिक व्यवस्थित ढंग से पढ़ी जा रही हैं।

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