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मातृत्व : सहज सिद्ध दिव्य रूपांतरण

एक आँख में दुलार तो दूसरी में फटकार

हमें फॉलो करें मातृत्व : सहज सिद्ध दिव्य रूपांतरण
- ज्योतिर्मय

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विवाह के समय आशीर्वाद देते हुए ऋग्वेद में ऋषि सावित्री सूर्या ने गाया है- दशास्यां पुत्रनाधेहि पतिमेकादशम कृधि (10।85।45)।- हे इंद्र यह स्त्री दस पुत्रों को जन्म दे और पति इसका ग्यारहवाँ पुत्र हो। दस पुत्रों को जन्म देने का आशीर्वाद तो सहज हो सकता है। लेकिन पति को भी ग्यारहवी संतान बना लेने का भाव विचित्र है। दूधों नहाओ पूतों फलों का आशीर्वाद उच्चारती बड़ी-बूढ़ी महिलाएँ आज भी दिखाई देगी। इसका अर्थ बहुत से बच्चों को जन्म देने से नहीं है।

आशीर्वाद की यह पंक्ति जिसने भी रची होगी उसका भाव सावित्री सूर्या से अलग नहीं रहा होगा। विवाह के समय पढ़े गए सैंतालीस मंत्रों का यह सूक्त भी एक स्त्री द्वारा की जा रही प्रार्थना ही है।

सावित्री सूर्या पति को ग्यारहवाँ पुत्र कहती है तो एक अर्थ में वह संसिद्धि है। संसिद्धि इसलिए कि वात्सल्य ने उसके व्यक्तित्व को आंतरिक समृद्धि दी है तो वह अंबा, धात्रि, भक्ति और शक्ति बन जाती है। उसका स्नेह दुलार संतान तक ही सीमित नहीं रह जाता। उस से आगे बढ़कर वह दूसरे संबंधों को सराबोर कर देता है। ऋषि ने जब इस वात्सल्य को पति तक विस्तार दिया है तो उसकी ओर से स्पष्ट घोषणा है कि वासना तिरोहित हो रही है। अब निर्मल अनुराग के सिवा कुछ नहीं बचा है।

परिवार संस्था की मर्यादाओं में रहते हुए माँ के साथ पिता की भी जरूरत रहती है। प्राचीन वांग्मय इस आवश्यकता को स्वीकार करते हैं। माता के साथ पिता को भी देव मानने और उसका आदर करने को धर्म कर्तव्य की श्रेणी में रखते हुए भी मनीषी वरीयता माँ को ही देते रहे हैं।

पिता एक सामाजिक जरूरत है। उसके बिना भी जीवन व्यक्त और विकसित हो सकता है लेकिन माँ अपरिहार्य है। संतान के लिए वह नैसर्गिक आधार है। उसके बिना किसी संतति का न तो जन्म संभव है और न ही विकास। इसलिए कुछ सभ्यताएँ माँ के संदर्भ को ही पर्याप्त मानती रही है। वह परिवार की मुखिया हो तो आज भी संतान की पहचान माँ से करने के उदाहरण जहाँ-तहाँ बिखरे पड़े हैं।

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छांदोग्य उपनिषद ने सत्यकाम के आख्यान में पिता के संदर्भ को नकारने और माँ के नाम से ही कुलगोत्र का परिचय देने वाली पहल को गौरवान्वित भी किया है। माँ जबाला युवावस्था में ही विधवा हो गई थी। अतिथियों का सत्कार करते हुए वह संसर्ग से माँ बनी और एक पुत्र को जन्म दिया। पुत्र सत्यकाम गुरुकुल जाने योग्य हुआ तो प्रश्न उठा कि पिता का परिचय क्या दिया जाए। माँ ने अपनी अनभिज्ञता जताई और कहा कि परिचर्या करते हुए किसके संपर्क से गर्भधारण किया, कहना कठिन है। इसलिए तू सिर्फ अपनी माँ का नाम ही बताना और जो सच है वही कहना।

आचार्य हारिद्रुमत गौतम ने यह कुछ सुन कर कहा कि इतनी सहजता से सत्य बोलने वाला बालक उत्कृष्ट आत्मा ही हो सकता है। गौतम ने उसके कुल गोत्र को माँ का नाम दिया और सत्यकाम जबाला का पुत्र या जाबाल कहलाया।

शकुंतला और उसके पुत्र भरत का प्रसंग भी सत्यकाम से कम विलक्षण नहीं है। स्वच्छंद प्रणय प्रसंग से जन्मे भरत के पिता का नाम अज्ञात नहीं था। इसके बावजूद उसे दु्‌ष्यंत ने पहचानने से मना कर दिया और ठुकराई हुई शकुंतला को कण्व ऋषि के आश्रम में भी जगह नहीं मिली। परिस्थितियाँ मोड़ लेती है और लंबे विवाद के बाद दुष्यंत अपनी पत्नी और पुत्र को अपनाते हैं।

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महाभारत के अनुसार दैवी हस्तक्षेप से आए इस मोड़ में भरत का तेजस्वी स्वरूप भी एक बड़ा कारण था। भरत का तेजस्वी शैशव शकुंतला के सान्निध्य में ही विकसित हुआ था। उस अवस्था में राजसी संस्कार देने के लिए दुष्यंत ने भी शकुंतला की प्रशंसा की है।

मातृत्व का पहला चरण विवाह की परिधि में ही रह कर ही तय किया जाता रहा है। इस परिधि का कदाचित अतिक्रमण हो गया हो तो उससे कोई बाधा नहीं होती थी। संतान के विकास में तो कतई नहीं। शकुंतला का उपाख्यान इसका भी एक उदाहरण है। इसके अतिरिक्त अहिल्या प्रसंग में भी उसके पुत्र शतानंद को अवसर मिलने मे कोई कठिनाई नहीं आई। इंद्र का प्रणय निवेदन स्वीकार करने के बाद गौतम ने उसका तिरस्कार कर दिया। ऋषि ने वह आश्रम छोड़ दिया।

यज्ञयाग और विद्यार्थियों से भरे रहने वाला आश्रम श्रीहीन हो गया। लेकिन अहिल्या के पुत्र शतानंद को जनक ने राजपुरोहित नियुक्त किया। राम के मिथिला आने पर शतानंद जिस तरह अपनी माँ का कुशलक्षेम पूछते हैं, उससे लगता है कि पिता गौतम की दी हुई व्यवस्था से बंधे होने के बावजूद वे अपनी मां के लिए चिंतित रहे थे।

वैदिक और पौराणिक वांग्मय में अमैथुनी संतान के कई प्रसंग है। इन प्रसंगों की व्यंजनाएँ सुलझाई जा सकें तो मातृत्व के गूढ़ रहस्य उजागर हो सकते हैं। शक्ति की आराधना के लिए लिखे और गाए जाने वाले स्तोत्र गीतों में कुछ रहस्य प्रकट होते ही हैं। एक रहस्य तो यही है कि माँ की एक आँख दुलार से भरी होती है तो दूसरी में फटकार भी झलकती है।

जन्म के बाद पोषण और परिहार का क्रम साथ-साथ चलता है। पिता के रूप में उपास्य ईश्वर या इष्ट में करुणा और कठोरता का वैसा समन्वय नहीं होता। लौकिक जीवन में यह संतुलन समन्वय सधता दिखाई देता है तो एक ही स्थिति में कि माँ की वासना परिमार्जित होती जा रही हो।

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