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वैदिक चिंतन से ही बचेगा पर्यावरण!

सदियों पुराना है पर्यावरण और जीवन का संबंध

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समस्त जीव एवं वनस्पति जगत और मनुष्य के जीवन के परस्पर सामंजस्य का प्राचीन भारत के ऋषि तपोवन में अद्भुत परिचय मिलता है। भारत के ऋषि-मुनियों द्वारा विरचित वेदों, पुराणों, उपनिषदों तथा अनेक धार्मिक ग्रंथों में पर्यावरण का चित्रण हमें प्राप्त होता है। पर्यावरण और जीवन का संबंध सदियों पुराना है।

प्रत्येक प्राणी अपने चारों ओर के वातावरण अर्थात्‌ बाह्य जगत पर आश्रित रहता है, जिसे सामान्य भाषा में पर्यावरण कहा जाता है। पर्यावरण दो शब्दों से मिलकर बना है- 'परि' तथा 'आवरण'। 'परि' का अर्थ है- चारों ओर तथा 'आवरण' का अर्थ है 'ढंका हुआ' अर्थात्‌ किसी भी वस्तु या प्राणी को जो भी वस्तु चारों ओर से ढंके हुए है वह उसका पर्यावरण कहलाता है।

सभी जीवित प्राणी अपने पर्यावरण से निरंतर प्रभावित होते हैं तथा वह उसे स्वयं प्रभावित करते हैं। संपूर्ण जैव मंडल को सुरक्षा कवच देने वाले दो तत्व हैं- 'प्राकृतिक तत्व-वायु, जल, वर्षा, भूमि, नदी, पर्वत आदि एवं मानवीय तत्व-अप्राप्त की प्राप्ति में प्रकृति से प्राप्त संरक्षण।

पर्यावरण के संरक्षण के लिए प्रकृति से प्राप्त कर संरक्षण। पर्यावरण के संरक्षण के लिए प्रकृति तथा मानव प्रकृति में उचित सामंजस्य की आवश्यकता है। वेदों में इन दोनों तत्वों का वर्णन उपलब्ध है।

'ॐ पूर्णभदः पूर्णामिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते॥'

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- अर्थात् इसका स्पष्ट भाव है कि हम प्रकृति से उतना ग्रहण करें जितना हमारे लिए आवश्यक हो तथा प्रकृति की पूर्णता को क्षति न पहुंचे। परिवारों में मां-दादियां इसी भाव से तुलसी की पत्तियां तोड़ती हैं। वेद में एक ऐसी ही प्रार्थना की गई है -
'यत्ते भूमे विखनामि क्षिप्रं तदपि रोहतु।
मां ते मर्म विमृग्वरी या ते हृदयमर्पितम्‌॥'

- अर्थात्, हे भूमि माता! मैं जो तुम्हें हानि पहुंचाता हूं, शीघ्र ही उसकी क्षतिपूर्ति हो जावे। हम अत्यधिक गहराई तक खोदने में (स्वर्ण-कोयला आदि) में सावधानी रखें। उसे व्यर्थ खोदकर उसकी शक्ति को नष्ट न करें।

पर्यावरण की समाजशास्त्रियों तथा मनोवैज्ञानिकों ने अनेक परिभाषाएं दी हैं :-

गिलबर्ट के अनुसार- 'पर्यावरण वह सब कुछ है जो किसी वस्तु को चारों ओर से घेरे हुए है तथा उस पर प्रत्यक्ष प्रभाव डालता है।'

ई.जे. रास के अनुसार- 'पर्यावरण कोई बाह्य शक्ति है जो हमको प्रभावित करती है।

पर्यावरण और जीवन का एक-दूसरे से घनिष्ठ संबंध है कि पर्यावरण के बिना जीवन नहीं हो सकता और जीवन के बिना पर्यावरण नहीं हो सकता।

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भारतीयता का अर्थ ही है-हरी-भरी वसुंधरा और उसमें लहलहाते फूल, गरजते बादल, नाचते मोर और कल-कल बहती नदियां। यहां तक कि भारतीय संस्कृति में वृक्षों और लताओं का देव-तुल्य माना गया है। जहां अनादिकाल से इस प्रार्थना की गूंज होती रही है- 'हे पृथ्वी माता तुम्हारे वन हमें आनंद और उत्साह से भर दें।' पेड़-पौधों को सजीव और जीवंत मानने का प्रमाण भारतीय वाङ्मय में विद्यमान है।

वेदों में पर्यावरण को अनेक तरह से बताया गया है, जैसे- जल, वायु, ध्वनि, वर्षा, खाद्य, मिट्टी, वनस्पति, वनसंपदा, पशु-पक्षी आदि। जीवित प्राणी के लिए वायु अत्यंत आवश्यक है। प्राणी जगत के लिए संपूर्ण पृथ्वी के चारों ओर वायु का सागर फैला हुआ है।

ऋग्वेद में वायु के गुण बताते हुए कहा गया है- 'वात आ वातु भेषजं मयोभु नो हृदे, प्रण आयूंषि तारिषत' 'शुद्ध ताजा वायु अमूल्य औषधि है, जो हमारे हृदय के लिए दवा के समान उपयोगी है, आनंददायक है। वह उसे प्राप्त करता है और हमारी आयु को बढ़ाता है।'

ऋग्वेद में यही बताया गया है- कि शुद्ध वायु कितनी अमूल्य है तथा जीवित प्राणी के रोगों के लिए औषधि का काम करती है। शरीर को स्वस्थ रखने के लिए आयुवर्धक वायु मिलना आवश्यक है। और वायु हमारा पालक पिता है, भरणकर्ता भाई है और वह हमारा सखा है। वह हमें जीवन जीने के योग्य करें। शुद्ध वायु मनुष्य का पालन करने वाला सखा व जीवनदाता है।

वृक्षों से ही हमें खाद्य सामग्री प्राप्त होती है, जैसे फल, सब्जियां, अन्न तथा इसके अलावा औषधियां भी प्राप्त होती हैं और यह सब सामग्री पृथ्वी पर ही हमें प्राप्त होती हैं।

अथर्ववेद में कहा है- 'भोजन और स्वास्थ्य देने वाली सभी वनस्पतियां इस भूमि पर ही उत्पन्न होती हैं। पृथ्वी सभी वनस्पतियों की माता और मेघ पिता हैं, क्योंकि वर्षा के रूप में पानी बहाकर यह पृथ्वी में गर्भाधान करता है। वेदों में इसी तरह पर्यावरण का स्वरूप तथा स्थिति बताई गई है और यह भी बताया गया है कि प्रकृति और पुरुष का संबंध एक-दूसरे पर आधारित होता है।

प्रस्तुति : आचार्य गोविन्द बल्लभ जोशी

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