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एक भले शिक्षक का भला विद्यार्थी

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दिलीप विष्णुपं

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सबके सामने वे कुछ नहीं कहते लेकिन मन में यह शिकायत रहती कि बच्चे पढ़ना नहीं चाहते। विष्णुपंत (मराठी में नाम के आगे पंत लगाना आदरसूचक होता है) जब गाँव की पाठशाला में पढ़ाते थे तब भी बच्चे पढ़ाई से दूर भागते थे। बाद में वे शहर के कॉलेज में पढ़ाने लगे तब तो छात्र भागते ही भागते।

लिहाजा उन्होंने दूसरों को पढ़ाना छोड़ दिया और खुद को ही पढ़ाने लगे। उनका विषय था चित्रकला और निसर्ग। यह कैसा घालमेल है? सोचोगे तो समझ में आएगा। चित्रकला यानी अलग-अलग आकारों और रंगों का मेल है। प्रकृति में देखो-पत्ते, टहनियाँ, पत्थर, बादल कितने तरह के आकार हैं। रंग इतने कि एक हरे की ही सैकड़ों छटाएँ देख लो।

ये बात बहुत पुरानी है। तब सब्जियाँ सेर से मिलती थीं और दूरी मील में मापी जाती थी। वे दिन बहुत सरल थे। गुरुजी दिन में दो बार साइकल चलाते हुए डेढ़ कोस दूर कॉलेज जाते थे। अक्सर उनका कुत्ता मोती भी उनके पीछे हो लेता था। वह भी उनकी ही तरह सहिष्णु था। कुल तीन कोस की दूरी में वह पैदल दो बार ओवरब्रिज चढ़ता-उतरता, कई चौराहे पार करता, कितने ही आवारा कुत्तों की परवाह किए बिना गुरुजी की राह पर बगैर भटके चलता रहता। कक्षा में पूरे समय उनकी मेज के नीचे चुपचाप पंजों पर थूथन टिकाए सुनता रहता। न पानी-पेशाब की छुट्टी माँगता, न भूख लगी है का शोर मचाता। यह देखकर गुरुजी को बच्चों का बर्ताव और भी अखरता।

कुछ लोग गाँधीजी को अपने काफी पास अनुभव करते हैं। मैसूर के ऊँचाई से गिरने वाले एक जलप्रपात के बारे में गाँधीजी ने कहा था यह तो कुछ नहीं है। वे प्रकृति का जलप्रपात (वर्षा) देखते हैं जो ठेठ आसमान से गिरता है। यह बात गुरुजी के मन में घर कर गई। उन्होंने रंग, ब्रुश, कैनवास सब छोड़ दिए। वे नैसर्गिक आकार और रंग यानी सूखी टहनियाँ, छाल, फूल, पत्ते, वगैरा में चित्र देखने लगे। ऐसा नहीं कि वे कंपनी के रंगों का उपयोग नहीं जानते थे। चित्र उन्होंने खूब बनाए। कस्बे में रहते हुए ही दिल्ली, कलकत्ता, लखनऊ, बंबई के लोग उनके चित्रों को जानने लगे थे। रवीन्द्रनाथ टैगोर की सहेली रानू मुखर्जी गुरुजी की भक्तिन बन गई थी।

ऐसे में लोगों ने गुरुजी की नई प्रदर्शनी देखी तो बिदक उठे। उसमें चित्रों के नाम पर गुलमोहर की फलियाँ, आम की गुठलियाँ, पेड़ों की छाल, जलाऊ लकड़ी वगैरा थे। दोस्तों को लगा कि यह शख्स दिमाग से खिसक गया है। फिर कुछ पंडित किस्म के लोग थे जो रोज तैश में आकर बहस करने पर आमादा रहते। उन्हें लगता कि यह चित्रकला जिसे फाइन आर्ट कहते हैं उसके साथ भद्दा मजाक है। कुछ साल बाद, जब गुरुजी के इस मर्ज को लाइलाज मान लिया गया, शहर में किसी के हाथ पिकासो की एक पुस्तक लगी।

पाब्लो पिकासो पिछली सदी का यूरोप का सबसे अद्‍भुत चित्रकार था। अच्‍छे भले चित्र बनाना छोड़कर वह भी ऐसे ही काम करने लगा था। जैसे साइकिल की सीट और हैंडल से सांड का सिर बनाना। यह देखकर अब उन्हीं लोगों ने गुरुजी की प्रशंसा करना शुरू कर दिया।

गुरुजी तो बस प्रकृ‍ति में ही रम गए। पानी में जमी काई और दीवारों पर लगे मकड़ी के जालों में उन्हें चित्र दिखाई देने लगे। जली हुई रोटी और दीवार पर बरसाती सीलन में वे चित्र खोजने लगे। हर वस्तु में उन्हें चित्र दिखाई देते।

यहाँ तक की वे कबाड़ भी घर से बाहर नहीं जाने देते। कभी-कभी तो घर के लोग आजिज आ जाते कि यह सब क्या है। अगले चालीस वर्षों में प्रकृति की इस दीवानगी ने गुरुजी को कलागुरु बना दिया। इस बीच धुप्पल में उनका जन्मदिन (जो स्वर्गीय राधाकृष्णन का भी था) शिक्षक दिवस बन गया। छात्रों ने इस दिन छुट्‍टी ही देखी, उस शिक्षक को नहीं देखा। इस गुरुजी ने पूरे जीवन में एक ही मुकम्मिल छात्र तैयार किया जिसका नाम था विष्णु चिंचालकर। आज यह नाम 92 वर्ष का हुआनमस्कार आपको।

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