Select Your Language

Notifications

webdunia
webdunia
webdunia
webdunia
Advertiesment

लोकार्पण का शास्त्र

हमें फॉलो करें लोकार्पण का शास्त्र
- बी.एल.आच्छा

वे अपनी रचनाओं से बहुत गदगद रहते हैं। उन्हें कभी लगता ही नहीं कि उनकी रचनाओं में कहीं कतर-ब्यौंत की जरूरत है। पहले प्यार और पहले बच्चे के दुलार की तरह उन्हें रचना का हर हिस्सा, हर शब्द, हर कल्पना नायाब-सी लगती है। यों भी कवि सम्मेलन हो या गोष्ठी, कवि अपनी ही कविता का गुणगान पहले करता है, उसे पढ़ता बाद में है।

इस अनोखे बड़बोलेपन को नई इबारत देते हुए एक मित्र ने कहा - 'ये रचनाएँ लिखी नहीं गई हैं, घटित हो गई हैं।' इन बातों ने उनके विश्वास को नए पंख दे डाले। उन्होंने कई बार प्रकाशकों को दस्तक दी पर पांडुलिपि लौटकर आती रही।

एकाध सयाने ने मजे लेते हुए गंभीरता से कहा - 'ये रचनाएँ मौलिक हैं। प्रकाशक बाजार को समझता है मगर मौलिकता को नहीं।'
आखिरकार तय हुआ कि गाढ़े पसीने से लिखी इन रचनाओं को गाढ़े पसीने की कमाई से ही छपवा लिया जाए। सरस्वती के लिए लक्ष्मी को खपा दिया जाए। किताब आ गई तो नई खुजली शुरू हो गई। मित्रगण किताब के लोकार्पण की बात कर रहे हैं - 'नए मकान के उद्‍घाटन की तरह नई किताब का लोकार्पण भी होना चाहिए।'

आखिर लोकार्पण तय रहा। लोकार्पण भी अखबार की सुर्खियों में आने का जोखिम भरा उद्यम है। जैसे लोग न्यूनतम शादियों के दिनों में लग्न निकलवाते हैं ताकि धर्मशाला आसानी से मिल जाए वैसे ही अखबार के खाली दिनों में लोग लोकार्पण रचाते हैं ताकि समाचार के लिए जगह भरी-पूरी मिल जाए। इस जोखिम को कम करने का तरीका प्रभावी ‍हस्तियों को बुलाने का है, जो भले ही बुझे हुए ज्वालामुखी हों पर साहित्य में 'साख' बन हुए हों। कई नामी होते हैं, जिनसे समाचार को संजीवनी मिल जाती है।

अखबारों में दो-तीन कॉलम में सचित्र समाचार छप जाए, इस तौल के अतिथियों का चयन किया गया।

समीक्षकों की तलाश होती रही। लोगों ने इस तरह भरोसे के नाम सुझाए जैसे पीएचडी के वायवा के लिए भरोसेमंद मित्र प्रोफेसरों के नाम परोसे जाते हैं पर समीक्षक - आलोचक का भरोसा क्या? पता नहीं पंच-परमेश्वर की कुर्सी पर बैठते ही अपनी आत्मकथाएँ तटस्थ कर लेते हैं। लेखक चाहता है कि समीक्षक कुछ ऐसा कहे अपनी किताब के लिए जैसा रामचंद्र शुक्ल ने 'रामचरितमानस' और 'पद्मावत' के लिए कहा। जैसे गुटबाज साहित्यकार अपने गुट के लेखकों के लिए कहते हैं।

पर बंदा हो भरोसे का। जैसे सरकार बनाने के लिए भरोसे के बंदों को तलाशा जाता है वैसे ही समीक्षकों को तलाशा गया जो अपनेपन से बँधे हों।

दो शाकाहारी जीवों को इसके लिए तलाशा गया। बड़ी मुश्किल से एक समीक्षक तो भरोसे के लिए मगर दूजे के लिए शंकालुपन के बावजूद स्वीकृत हो गई। आखिरकार जलसा हुआ। अतिथियों में समीक्षा के सूरमा टाइप भी बैठे थे।

मालाओं से उनकी वाणी को आमंत्रित किया गया। समीक्षक ने किताब की छपाई और फ्लैप की इबारत का खास जिक्र किया। फिर
कहीं-कहीं से रचनाओं का उल्लेख करते हुए वे रचना-संकलन को जैसे-तैसे ए ग्रेड में ले आए तो लेखक ने ठंडे पानी का गिलास हलक के नीचे उतार लिया मगर दूजे समीक्षक इस किताब को लेकर किंतु-परंतु करते चले गए तो पहले समीक्षक से मिली तसल्ली का पानी पसीना बनकर लेखक के चेहरे पर देखा तो बात समेटते हुए कहने लगे - 'कुल मिलाकर यह किताब पाठकों की भीड़ में अच्छी पठनीय किताबें मुश्किल से छप पाती हैं। यह किताब इस मायने में सुकून देती है।'

लोकार्पण और समीक्षा की परीक्षा की अंकसूची अखबारों में छपती है। चित्र आ जाए तो सवा सोलह आने का प्रोग्राम। दो-तीन कॉलम में छप जाए तो पैसा वसूलसबके नाम आ जाएँ तो परम संतुष्टि। जैसे भक्त, भक्ति और भगवान एक हो जाते हैं, वैसे ही किताब-लेखक और समाचार भी एकमेक होकर जीवन को धन्य बना देते हैं। लोकार्पण के इन विटामिनों से नई आस्था पैदा होती है, नया सृजन कुलबुलाने लगता है।

Share this Story:

Follow Webdunia Hindi