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दादी के नुस्खों पर पेटेंट का खतरा

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, सोमवार, 15 अक्टूबर 2012 (17:55 IST)
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जुकाम, बुखार हो या फिर पेट दर्द की शिकायत। दादी नानी के असरदार नुस्खे सदियों से भारत में आजमाए जाते रहे हैं। अब इन्ही नुस्खों पर विदेशी कंपनियों की नजर लग गई है

गाय के दूध में हींग या मेथी मिलाकर पीने से कब्ज की शिकायत दूर हो जाती है ये कौन नहीं जानता। लेकिन अब स्विट्जरलैंड की कंपनी नेस्ले इस नुस्खे पर कब्जा करने की कोशिश में लगी है। कंपनी ने इसी तरह का एक उत्पाद तैयार किया है जिस पर पेटेंट कराने का उसने दावा ठोंका है। अगर कंपनी को ये पेटेंट मिल जाता है तो फिर से नुस्खा घर में तैयार करना गैर कानूनी हो जाएगा।

हालांकि भारत नेस्ले के इस दावे के खिलाफ मजबूती से लड़ता आया है। नेस्ले ने यूरोपीय पेटेंट कार्यालय में पेटेंट के लिए दावा ठोंका था जिसका भारत ने विरोध किया है। भारत का कहना है कि गाय का दूध सदियों से भारत में कब्ज दूर करने के लिए इस्तेमाल किया जाता रहा है। इसका जिक्र पुरानी किताबों में भी मिलता है।

गाय के दूध का पेटेंट विवाद तो महज एक बानगी है। भारत सरकार इस तरह के सैकड़ों मुकदमों का सामना कर रही है।

नवदान्य नाम की एक गैर सरकारी संस्था के निदेशक विनोद भट्ट कहते हैं, 'भारत दुनिया में जैविक विविधता के सबसे बड़े केन्द्रों में से एक है। हम अपने परंपरागत ज्ञान की चोरी नहीं होने देंगे। ये हजारों सालों से चलते आ रहे हैं और इनकी जड़ें हमारी संस्कृति में समाई हैं। पश्चिमी देशों के व्यावसायिक शोषण के खिलाफ हमें अपनी सुरक्षा करनी होगी।'

भारत के परंपरागत ज्ञान के लिए डिजिटल लाइब्रेरी (टीकेडीएल) चलाने वाले विनोद गुप्ता कहते हैं, 'नेस्ले तो बस एक उदाहरण है। हम लोग पेटेंट के 110 केस जीत चुके हैं। इस तरह के 800 केस और चल रहे हैं।' विनोद गुप्ता की डिजिटल लाइब्रेरी 2001 में स्थापित की गई थी। इसमें दवाई बनाने के 2 लाख 50 हजार परंपरागत फॉर्मूलों को सहेजा गया है।इसमें आयुर्वेद भी शामिल है।

गुप्ता कहते हैं भारत का हर वो पेड़ पौधा पाइरेसी के हमले का शिकार बन रहा है जिससे दवाइयां बनाई जा सकती हैं। केले का उदाहरण देते वो बताते हैं कि ब्रिटेन स्थित एक अमेरिकी कंपनी ने डायरिया के लिए केले के इस्तेमाल का पेटेंट कराने का दावा किया था। इसके बाद टीकेडीएल ने साबित किया कि डायरिया के लिए केले का इस्तेमाल भारत में पहले से ही काफी प्रचलित है। इसके बाद पेटेंट अर्जी को वापस ले लिया गया। गाय के दूध के केस में भी यूरोपीय पेटेंट कार्यालय ने सबूत मांगा था।

पेंटेट की अर्जी खारिज हो जाती है अगर ये साबित कर दिया जाए कि ज्ञान का ये तरीका पहले से ही प्रचलन में है। इसे साबित करना और आसान हो जाता है अगर ये तरीका किसी शोध पत्र या पत्रिका में प्रकाशित हो चुका है। करीब 200 शोधकार्मियों ने 8 सालों की कड़ी मेहनत के बाद टीकेडील का डाटाबेस तैयार किया है। इसके लिए हिंदी, संस्कृत, उर्दू, फारसी में लिखित आयुर्वेद और योग संबंधी जानकारी को इकट्ठा किया गया। टीकेडीएल के डाटाबेस को विदेशों में भी देखा जा सकता है। इससे पेटेंट के विशेषाधिकार देने से पहले फैसला लेने में सहूलियत हो रही है।

जैविक चोरी के बारे में भारत पहली बार आज से 20 साल पहले हरकत में आया था। यूरोपीय पेटेंट कार्यालय ने एक अमेरिकी कंपनी को नीम के चिकित्सकीय इस्तेमाल को लेकर पेटेंट का दावा किया था। जीवाणुओं से लड़ने के साथ साथ नीम रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने में भी मददगार होता है ये बात सदियों से लोग भारत में जानते हैं।

आखिरकार भारत ने 10 साल तक चली कानूनी लड़ाई के बाद इस मुकदमे में जीत हासिल की थी। 2009 में इसी तरह के एक मुकदमे में यूरोपीय कार्यालय ने उस पेटेंट को खारिज कर दिया था जिसमें चमड़ी के रोग दूर करने के लिए तरबूज के इस्तेमाल को लेकर दावा पेश किया गया था।

पेटेंट का असर भारत के गांव देहात में कम ही देखने को मिलता है। वहां अभी भी दवाओं के लिए पेड़ पौधों का इस्तेमाल किया जाता है। हां, सरकार जरूर इस पर कड़ी आपत्ति दर्ज कराती रही है। सरकार की नजर में परंपरागत ज्ञान की रक्षा करना राष्ट्रीय गौरव का मामला है। टीकेडीएल और बड़ी बड़ी कंपनियों के बीच पेटेंट विवाद सुलझने में कई बार सालों का वक्त लग जाता है। इसके लिए टीकेडीएल को तगड़े कागजी सबूत तैयार करने होते हैं।

टीकेडीएल का कहना है, 'हम लोग इसे किसी तत्कालीन समस्या के रूप में नहीं देखते। इसके लिए हमें लंबे समय तक सतर्क रहना होगा। वैज्ञानिक भी मानते हैं कि भारत जैसे देशों को और सतर्क रहने की जरूरत है।'

कृषि वैज्ञानिक देवेन्दर शर्मा कहते हैं, '1992 से लेकर 2000 के बीच में चीन ने पेटेंट कानून में दो बार सुधार किया है ताकि चीनी दवाइयों के विशिष्ट फॉर्मूले को सुरक्षित किया जा सके।' शर्मा का कहना है कि इसी तरह का कानून भारत में भी लाया जाना चाहिए। पेटेंट विवाद को लेकर बड़ी कंपनियों का पीछा करने के बजाय हमें कानून को ही ऐसा बना देना चहिए जिससे इस ज्ञान को संरक्षित किया जा सके।

कानून के जानकार भी इस बात से सहमत नजर आते हैं कि कानून में बदलाव की जरूरत है। पेटेंट कानून के विशेषज्ञ प्रत्यूष प्रतीक का कहना है, 'भारत का पारंपरिक ज्ञान बौद्धिक संपदा अधिकार के दायरे में नहीं आता। और ठीक तरीक से इसकी व्याख्या भी नहीं की गई है। पश्चिमी देशों ने पारंपरिक ज्ञान का खत्म हो जाना स्वीकार कर लिया है। भारत को यह गलती नहीं करनी चाहिए।'

- वीडी/एएम (एएफपी)

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