फिर यह हुआ कि यह पूरे शहर में होने लगा कि जहाँ बड़े बड़े मैदान थे वहाँ कॉलोनियाँ कट गईं, प्लॉट बन गए और देखते देखते उन पर मकान खड़े हो गए। बगीचे और मैदान गायब हो गए। अखबारों में बड़े बड़े विज्ञापन छपने लगे जिसमें नई बनती कॉलोनियों और उनमें बनने वाले भव्य मकानों के चित्र थे। एक दिन खबर छपी कि सड़क पर अकेला खेलता बच्चा मारा गया। किसी चार पहिया वाहन ने उसे टक्कर मार दी थी। शायद खेल में वह इतना मगन हो गया था कि भूल गया था कि वह सड़क पर खेल रहा है। अपने खेल में वह भूल चुका था कि सड़क उसके लिए एक खेल के मैदान में बदल गई थी। सड़क उसे शायद बगीचा लग रही थी क्योंकि उसके घर में, या पड़ोस में या आसपास कहीं बच्चों के खेलने के लिए जगह नहीं थी। कोई खाली और खुली जगह नहीं थी, कोई मैदान नहीं था, कोई बगीचा नहीं था।
शहर में खूब सारे मकान थे और खेलने के लिए जगह नहीं थी। घर में इसलिए जगह नहीं थी कि घर तो छोटे होते जा रहे थे क्योंकि उनमें टीवी, फ्रीज, आलमारी, सोफासेट, प्लेयर आदि अडंग-बड़ंग के लिए जगह थी, बच्चों के खेलने के लिए नहीं। यदि यह सब अडंग-बड़ंग नहीं था तो इन्हें खरीद लेने की तैयारियाँ और योजना थी। खूब सारा तनाव था,इन चीजों को न बटोर पाने का। दूसरी ओर टीवी ने विज्ञापन में खूबसूरत घर दिखाकर हीन भावना पैदा कर दी थी। अतः बच्चा घर से बाहर कर दिया गया और वह सड़क पर खेलता मारा गया।
बस खबर थी कि सड़क पर अकेला खेलता बच्चा मारा गया। वह इस तरह लिखी गई थी कि पाठकों को लगे कि गलती बच्चे की थी। हमारी, हमारे शहर की, हमारे नीति-निर्माताओं की ताकत पूरी इस बात में लगी थी कि कैसे घर सुंदर बने, कैसे शहर सुंदर बने और फिर कैसे यह राष्ट्र सुंदर बने।
गुनहगार तो बच्चा था जो अकेला सड़क पर खेलते मारा गया, बाकी सब बरी थे।