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किस्सा-ए-कंजेक्टिवाइटिस

व्यंग्य

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सूर्यकुमार पांडेय
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एक वह टाइम था, जब उनकी नशीली आँखों की मस्ती के लाखों मस्ताने हुआ करते थे। तब उनकी आँखों से थाउजेंड्स अफसाने वाबस्ता थे। अब नजरें मिलाने की कौन कहे, कोई उनकी तरफ ताकने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा। रीजन ही कुछ ऐसा हो गया है। उनसे बातें करो, तो वे नजरें झुकाने लगते हैं। आँखें मिचमिचाने लगते हैं। कोर पोंछने लग पड़ते हैं।

बुरा हो, इस मुई कंजेक्टिवाइटिस का! हम भी सोचते हैं, नजरें फेर लेने में ही भलाई है।

रियली, वे दिन हवा हो लिए जब 'आँखों-आँखों में प्यार होने दो, मुझको अपनी बाँहों में सोने दो' जैसा कोई गीत गुनगुनाते हुए हम उनकी आँखों में आँखें डालकर प्यार-व्यार की दो-चार बातें करने की तमन्नाओं समेत, अपने पियासे नयन लिए हुए, उनके कूचे में बेखटक घुस जाया करते थे। तब की सब बातें अब बदल गईं। अब बातें तो दूर, उनकी आँखों से सवा मीटर दूर की हवा भी हमको छूकर निकल जाए, तो दिल में सिहरन-सी होने लग जाती है। आजकल हमारे और उनके बीच अमर और मुलायम जितना फासला चल रहा है। हालात ऐसे हो गए हैं कि न तुम हमें देखो, न हम तुम्हें देखें।

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हम अपने बचपन में एक फिल्मी गाना सुना करते थे- 'नैन लड़ि जइहें तो मनवा मा कसक होइबे करी। इश्क का छुटिहें पटाखा तो धमक होइबे करी।' किंतु अब ये नैन लडें तो, इश्क का पटाखा तो बाद में छूटेगा, अश्क की अनवरत धारा पहले प्रवाहित होने लग जाने के खतरे हैं। तो किस्सा-कोताह ये कि इन दिनों उनकी आँखें लाल हैं। और तो और उन पर काला चश्मा भी चढ़ा हुआ है। वे खुद से आँखें चार किए बैठे हैं। उनकी आँखें परेशान हैं इस बेदर्दी बीमारी से और हम परेशान हैं उनकी रेड-रेड अँखियों से ...इन अँखियों ने हाय राम बड़ा दुख दीना। वैसे वे अकेले नहीं हैं। सारा एरिया ललछौंहे लोचनों की चपेट में है।

यह बीमारी 'आई' नामक अंग विशेष पर केंद्रित है। आँखों-आँखों में आ बसी है। हवाओं में वायरस इस अंदाज में टहल रहे हैं कि कब उनको टिकट मिले और वे किसी खाली नयन-क्षेत्र से अपना नामांकन-पत्र धाँय से दाखिल कर दें। तो प्यारो, बुरा हो इन पलकों में आ बसी बीमारी का। हमारा आज भी उनसे आँखें मिलाने को जी चाहता है। इशारों में बातें करने की हसरत दिल में है। पर हमारा यह शायर दिल क्या करे? मजबूर है। इतना ही कह पा रहा है- तुम्हारे प्यार का सिग्नल हमेशा ग्रीन मिलता है।

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