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हम भाइयों के लिए मेरी बहना....

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- शरद शाही

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अलसुबह पक्षियों के कलरव के साथ गली के मुहाने से आ रही सामूहिक गायन की आवाज से मेरी अनमनी-सी नींद काफूर हो गई और अलसाया-सा मैं उठकर बिस्तर पर ही बैठ गया। आवाज साफ आ रही थी...हम भाइयों के लिए मेरी बहना आता है एक दिन साल में ...आएँगे वहाँ हम, हर हाल में...इस गीत को सुना मैंने भी था लेकिन गाने वाले मेरी समझ में इसे उलटा गा रहे थे।

मेरी साहित्यिक प्रवृत्ति ने मुझे गाने वालों को गीत के बोल सुधारने के लिए प्रेरित किया और आनन-फानन में मैं आकर खड़ा हो गया अपने घर के सामने गली में। बड़ा दिलचस्प नजारा...हाथों में थाल.. जिसमें करीने से रखी हुई राखी, आरती का सामान, मिठाई, हल्दी, अक्षत, सिंदूर, पुष्प और फल वगैरह लिए हुए युवाओं की एक पूरी रोली बड़ी तन्मयता से राखी या यूं कहे कि बहनों का स्तुति वंदन करती हुई चली आ रही थी।

मैंने बड़े सलीके के उनका रास्ता रोका और विनम्रता से पूछा-भाई, ये सब क्या है? आप लोग कहाँ जा रहे हैं? सहसा रास्ता रोके जाने और यूँ टोके जाने से युवाओं के चेहरे पर नागवारी के भाव उभरे..शायद मैंने उनकी स्तुति में खलल डाल दिया था।

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मुझसे किनारा करके वे निकलने का उपक्रम करने लगे लेकिन मैं भी कहाँ मानने वाला था, फिर उनके आगे आकर खड़ा हो गया और निवेदन किया कि कम से कम मेरे प्रश्नों का जवाब देकर मुझे कृतार्थ तो करें। इस बार मेरी बात सुनकर तो वे हत्थे से ही उखड़ गए।

पहलवान-सा दिखने वाला एक व्यक्ति मेरी ओर बढ़ा और कहने लगा-अंधा है क्या, दिखाई नहीं देता? हम लोग अपनी बहनों को राखी बाँधने जा रहे हैं ..आज रक्षाबंधन है..समझे! सुबह-सबेरे ये उलटी गंगा बहते देखकर मेरा माथा ठनका। मैंने फिर निवेदन किया- महाशय, आप सही कह रहे हैं.. आज रक्षाबंधन है लेकिन इस दिन तो बहनें अपने भाइयों को राखी बाँधती हैं...फिर आप लोग बहनों को राखी बांधने की बात क्यों कर रहे हैं।

मेरी बात सुनकर वे सब के सब मेरे चेहरे को यूँ गौर से देखने लगे जैसे कि आज उन्होंने दुनिया के सबसे बड़े मूर्ख को देख लिया हो। एक दार्शनिक से दिख रहे नौजवान ने आगे बढ़कर मुझे समझाने का प्रयास किया-भइया, किस युग में जी रहे हो? वे जमाने लद गए, जब नारी अबला समझी जाती थी और कमजोर होने के नाते भाई को राखी बाँधकर रक्षा का वचन लिया करती थी...ये नारी सशक्तीकरण का युग है, अब नारी अबला नहीं सबला है।

फिर दूसरा नौजवान कहने लगा-अच्छा बताओ, बिहार में राबड़ी दीदी से पंगा लेकर आखिर साधु को क्या मिला? न घर के रहे न घाट के। मैं कुछ समझने की कोशिश कर ही रहा था कि तभी उनके एक साथी ने टोका अरे, जल्दी चलो यार, काफी टाइम खराब हो गया। अगर बहनें लेट आने से नाराज हो गईं तो खैर नहीं और मुझे ठगा- सा खड़ा छोड़कर वे लोग तेज कदमों से चल दिए।

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